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राम कथा - अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6496
आईएसबीएन :81-216-0760-4

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, दूसरा सोपान

घबराहट और जल्दी में उठाए गए इन सारे बवंडरों को राम झेल लेगा। राम साम्राज्य को संभाल लेगा। और राम से दशरथ को कोई भय नहीं है। दशरथ की आँखें चमक उठीं।...दशरथ को यह पहले क्यों नहीं सूझा?...चारों पुत्रों में से, दशरथ यदि किसी को अपनी रक्षा का दायित्व सौंप कर निश्चिंत हो सकते हैं, तो वह केवल राम है। अपनी तीनों पटरानियों में से दशरथ किसी को निरीहता अथवा प्रेम विश्वास कर सकते हैं तो वह केवल कौसल्या है...।

दशरथ को तत्काल राम का युवराज्याभिषेक कर देना चाहिए।

...और यह भी कैसा सुखद संयोग है कि राम कल वापस अयोध्या लौट रहा है। कल ही राजपरिषद् में राम के अभिषेक का निर्णय हो जाना चाहिए; और यथाशीघ्र अभिषेक भी। किसी को तनिक-सी भी सूचना मिल गई तो विघ्न उठ खड़े होंगे। कैकेयी अपने समर्थकों की सहायता से इस अभिषेक को रोकने का प्रयत्न करेगी। संभव है, राम की हत्या का प्रयत्न हो, संभव है स्वयं सम्राट् के प्राण लेने का षड्यंत्र हो...राज्याधिकार के लिए क्या नहीं होता। दशरथ का शरीर एक बार फिर ठंडे पसीने में नहा गया। मृत्यु जैसे उनके सामने खड़ी, उनकी आँखों में देख रही थी...बस हाथ बढ़ाने की बात है। यदि उन्होंने राम की बांह पकड़ ली, तो राम अपने खड्ग की नोक मृत्यु के वक्ष में हूल देगा।

किन्तु कैकय नरेश को दिया गया, दशरथ का वचन? रघुवंश में जन्म लेकर कोई अपना वचन नहीं तोड़ता। तो क्या वंश की प्रसिद्धि बनाए रखने के लिए, दशरथ अपने कंठ में मृत्यु का फंदा डाल लें?

जीवन बड़ा है या वचन? वचन की रक्षा कर मर जाना अच्छा है, या जीवन की रक्षा के लिए वचन तोड़ देना? दशरथ को कही कोई संदेह नहीं था कि उनके मन में जीवन की अदम्य लालसा थी। वे जीना चाहते थे। न सही सत्ता; किन्तु जीवन की रक्षा तो है।...

वचन की रक्षा धर्म है...पर ज्येष्ठ पुत्र को उसका देय देना भी तो धर्म है...पहले धर्म के पालन से उन्हें मिलेगी मृत्यु।

और दूसरे धर्म के साथ जुड़ा है उनका सुखद और सुरक्षित भविष्य। उनकी रक्षा यदि कोई कर सकता है तो, केवल राम! राम उनकी रक्षा करने को तत्पर न हुआ, तो फिर मृत्यु...

दशरथ ने अपने मन को पहचाना। भरत के नाना को दिये हुए वचन की पूर्ति की कोई इच्छा उनमें नहीं थी। वहां तो जीवन की सुखकल्पना थी। और जीवन का अर्थ था, राम।...

किन्तु क्या राम अपना युवराज्याभिषेक स्वीकार कर लेगा? राम जानता है कि दशरथ, भरत को युवराज बनाने के लिए वचनबद्ध हैं। फिर वह क्यों चाहेगा कि पिता अपना वचन तोड़कर अपयश लें...दशरथ भली प्रकार जानते हैं कि राम को राज्य का रंचमात्र भी मोह नहीं है। उसने आज तक केवल कर्म किया है-उसका फल कभी नही चाहा।

उसने दायित्व निभाए हैं, अधिकार कभी नहीं मांगे।

उसे समझना होगा कि उसका अभिषेक उसके पिता के प्राणों की रक्षा के लिए कितना आवश्यक है। उसे तत्काल अभिषेक करवाना होगा-युधाजित की तैयारी से पूर्व, भरत के लौटने तथा कैकेयी को गंध मिलने से पहले...। कल राम अयोध्या लौट आएगा। संध्या समय तक राज-परिषद् में उसके युवराज्याभिषेक की घोषण होनी चाहिए; और परसों सूर्योदय के साथ-साथ उसका युवराज्याभिषेक...

अवश्य। अनिवार्य रूप से। अन्यथा अब दशरथ बच नहीं सकते...।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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