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राम कथा - अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6496
आईएसबीएन :81-216-0760-4

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, दूसरा सोपान

राम ने देखा, वे सब सम्राट् की सुंदरी, युवती पत्नियां थी, जिनके साथ सम्राट् ने कभी आकर्षित होकर अपनी इच्छा से, कभी किसी के प्रस्ताव पर, अथवा किसी की भेंट स्वीकार करने के लिए, विवाह किए थे। राम ने सम्राट् के ऐसे अनेक विवाह-अपने शैशव से देखे थे-जिनमें, एक स्त्री के साथ विवाह कर, उसे दो-तीन दिन अपने महल में रख, राजसी अंतःपुर में धकेल दिया जाता था। अन्तःपुर में जाकर, न वह किसी की पुत्रियां थीं, न बहनें, न पत्नियां-वह अन्तःपुर की स्त्रियां होती

थीं। उनके भरण-पोषण का भार राजकोष पर होता था। और किसी का उनके प्रति कोई दायित्व नहीं था।

राम ने जैसे-जैसे होश संभाला था, उनकी करुणा, अपनी इन माताओं के प्रति बढ़ती चली गई थी। उन स्त्रियों की स्थिति विचित्र थी, न वह बंदिनी थीं, न स्वतंत्र। वह सौभाग्यवती विवाहिताएं थीं, किंतु पति-विहीना। वह रानियां थीं, किंतु राजपरिवार की सदस्यता के रूप में, उनमें से किसी को कोई अधिकार प्राप्त नहीं था। अंतःपुर में कोई काम नहीं था, अंतःपुर से निकल भागना उनके वश का नहीं था। लंगड़ी बिल्ली के समान, वे घर के भीतर ही शिकार करती रहती थीं। परस्पर, एक-दूसरी की सहायक होने के स्थान पर, एक-दूसरी के विरुद्ध षड्यंत्र रचकर, परिवेश को विषैला करती रहती थीं।

ताड़का वन में से अनेक अपहृता बंदिनी युवतियों को मुक्त कराकर, राम इन रानियों के प्रति विशेष रूप से सदय हो गए थे। अनेक बार सोचा था। एक पुरुष के लिए इतनी स्त्रियों को, पत्नी का सम्मान, प्यार और अधिकार देना, सर्वथा असंभव तथा अप्राकृतिक था। जिस प्रकार अन्यायपूर्वक अपनी आवश्यकता से अधिक धन एकत्रित कर, सांप बनकर, उस पर बैठकर, अपना या दूसरों का केवल अहित किया जा सकता है, वैसे ही इतनी पत्नियों को एकत्रित कर, न केवल सम्राट् ने मानवीय अन्याय किया था, वरन् अपना और उनका अहित भी किया था। यदि कहीं ये स्त्रियां अपहृत कर बलात् लाई गई होतीं, उन्हें बलपूर्वक अवरोध में रखा गया होता, तो राम उन्हें कब के मुक्त करा चुके होते। किंतु कठिनाई यह थी कि वे सब सम्राट् की विवाहिताएं थीं। वह मुक्त होना नहीं चाहती थीं, पत्नी का अधिकार पाना चाहती थीं...जो असंभव था। उनका बंधन न तो अंतःपुर की दीवारों का था, न सम्राट् के पतित्व का। उन्हें उनके अपने संस्कारों ने बंदी कर रखा था। शैशव से उनके मन में बैठा दिया गया था कि नारी का सबसे बड़ा सौभाग्य, उसका सुहाग है। पति उसका परमेश्वर है; चाहे पति के नाम पर उन्हें अयोग्य अमानव से बांध दिया जाए। आज यदि सम्राट् इन स्त्रियों को मुक्त भी कर दें, उन्हें अपनी पत्नियां मानने से इंकार भी कर दें-तो ये स्त्रियां उसे अपना सौभाग्य नहीं मानेंगी, वे प्रसन्न नहीं होंगी। वे परित्यक्ता की पीड़ा झेलेंगी; और परित्यक्ता की पीड़ा, कभी-कभी विधवा की पीड़ा से भी अधिक घातक होती है।...राम इन स्त्रियों के संस्कार नहीं बदल सके; किंतु अगली पीढ़ी को वे इन गलत संस्कारों का विरोध करना अवश्य सिखाएंगे, उनके भीतर विद्रोह जमाएंगे।

राम ने सम्राट् की पत्नियों को करुण दृष्टि से देखा और बोले, ''देवियो! मुझे जाना ही होगा। अपना ध्यान रखना; और न्याय के प्रति सजग रहना।''

सम्राट् ने हल्के-से अपनी आँखें खोलीं और डबडबा आई उन आँखों से राम को देखा, ''पुत्र राम! मुझमें शक्ति थी तो विवेक नही था : अब समझ आई है तो कर्म शक्ति नहीं है। जिनसे प्रेम करना चाहिए था, उन्हें सदा दुत्कारता रहा; और जो दुत्कारने योग्य थे, उन्हें गले लगाता रहा।''...सहसा दशरथ ने फिर आँखें बंद कर लीं, जैसे राम की ओर देखना, उनके लिए पीड़ादायक हो, ''मंत्री सिद्धार्थ से कहो कि वे मेरा समस्त धनकोष अन्न-भंडार, अयोध्या के कुशल वास्तुकार तथा मेरी चतुरंगिणी सेना लेकर, राम के साथ जाएं। राम को समस्त मनोवांछित भोगों से संपन्न कर, अयोध्या से भेजा जाए...''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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