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राम कथा - अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6496
आईएसबीएन :81-216-0760-4

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, दूसरा सोपान

''नहीं।'' कैकेयी के चीत्कार ने सम्राट् की वाणी को मूक कर दिया, ''परंपरागत उत्तराधिकार में मिले हुए राज्य को इस प्रकार लुटाने का अधिकार किसी को नहीं है-स्वयं सम्राट् को भी नहीं। वे अपना राज्य, केवल अपने युवराज को ही दे सकते हैं। मैं स्वयं को इस प्रकार प्रवंचित नहीं होने दूंगी।''

''धिक्कार!'' सन् कुछ चुपचाप सुनने वाले सुमंत सहसा अपना नियंत्रण खो बैठे। उनके मुख का वर्ण क्रोध से विकृत हो उठा। आँखों से जैसे चिनगारियां फूट रही थीं।

''सूत!'' कैकेयी का स्वर स्पष्ट तथा दृढ़ था, ''जितना चाहो, धिक्कारो। किंतु, मनचाहा वर मांगने का अधिकार मुझे है। सम्राट् या तो मुझे वर दें या न दें। वर देकर, अनदिया करने का अधिकार उन्हें मैं नहीं दूंगी। यदि वे मुझे वर देते हैं तो राम, अभी यहीं वल्कल धारण कर वन जाएंगे।...''

कैकेयी ने अपने भंडारी को संकेत किया; और वह अगले ही क्षण अनेक वल्कल वस्त्र लेकर उपस्थित हो गया। राम ने किसी ओर ध्यान नहीं दिया। वे स्थिर पगों से आगे बढ़े और उन्होंने भंडारी के हाथों

से वल्कल ले, अपने नाप के वस्त्र छांट धारण कर लिए।

लक्ष्मण ने साथ-साथ वल्कल छांटते हुए कहा, ''मुझे नहीं मालूम था कि इस महल में वल्कलों का लघु-उद्योग चल रहा है। इतने वल्कलों में तो सारी अयोध्या वन भेजी जा सकती है।''

कैकेयी उन्हें देखती-भर रही, कुछ बोली नहीं।

लक्ष्मण के हटते ही सीता आगे बढ़ीं। उन्होंने पहला वस्त्र उठाया था कि अब तक के मौन साक्षी गुरु वसिष्ठ पहली बार बोले, ''ठहरो बेटी! वनवास राम को मिला है। रघुकुल की पुत्रवधू को वल्कल धारण कर, वन-वन भटकने की अनुमति मैं नहीं दूंगा।'' गुरु, सम्राट् से सम्बोधित हुए, ''सम्राट्! राम वन जाएं। उनकी उत्तराधिकारिणी स्वरूप, उनकी अनुपस्थिति में सीता अयोध्या का शासन संभाले।''

सीता ने तमककर अपना चेहरा ऊपर उठाया और जैसे अटपटाकर बोलीं, ''गुरुजनों के विरोध के लिए मुझे क्षमा किया जाए। उत्तराधिकार के नियमों का ज्ञान मुझे नहीं है। जहां राम रहेंगे, मैं वहीं रहूँगी। पत्नीत्व का अधिकार मुझे मिले-यह मेरी प्रार्थना है।''

सीता ने गुरु की ओर मुड़, दोनों हाथ जोड़, उन पर अपना मस्तक टिका दिया। राम ने अपनी दाहिनी हथेली ऊंची कर, मौन का संकेत किया और ऊंचे स्वर में बोले, ''विवाद और प्रस्तावों का अवकाश नहीं है। यह निश्चित है कि मैं वन जा रहा हूँ। मेरे साथ सीता और लक्ष्मण भी जा रहे हैं। आप सब हमें अनुमति, आशीर्वाद और विदा दें।''

राम ने पुनः दशरथ को प्रणाम किया, ''पिताजी मेरी मां आपकी आश्रिता हैं।'' सबको विदा की मुद्रा में हाथ जोड़, राम द्वार की ओर चल पड़े। सीता तथा लक्ष्मण उनके साथ थे। उनके मित्र तथा कर्मचारी, उनके अस्त्रशस्त्र लिए, उनके पीछे-पीछे चल रहे थे।

कौसल्या अपने स्थान पर निष्प्राण-सी बैठी, राम को जाते देखती रहीं। उनकी आँखें क्रमशः आँसुओं से धुंधला गई थीं।

सहसा सुमित्रा तेज-तेज चलती हुई आईं और राम के सम्मुख, द्वार की चौखट पर खड़ी हो गईं, ''क्षण भर रुको राम! पुत्र तुम निश्चिंत होकर दंडक जाओ और सकुशल लौटो। एक आश्वासन लेते जाओ वत्स! सुमित्रा के रहते, बहन कौसल्या का बाल भी बांका न होगा-यह क्षत्राणी का वचन है।'' राम, सीता और लक्ष्मण, सुमित्रा के सम्मुख झुक गए। सुमित्रा के मुख पर तेज, उत्साह तथा चुनौती के भाव थे।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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