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राम कथा - अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6496
आईएसबीएन :81-216-0760-4

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, दूसरा सोपान

सात


कैकेयी महल से निकलकर राम, सीता और लक्ष्मण राज-मार्गों से होते हुए नगर-द्वार की ओर बढ़े। उनके पीछे उनके मित्र, बंधु-बांधव कर्मचारी, विभिन्न वर्गों के युवा नागरिक, अनेक संप्रदायों के युवा संन्यासी और ब्रह्मचारी चल रहे थे। जो भीड़ मार्गों पर छोड़ वे महल के भीतर गए थे-वह अब भी वहीं विद्यमान थी। भवनों के गवाक्ष अब भी खुले थे; और कुलवधुएं उनमें से झुकी पड़ रही थीं। उनके पहुंचने से पहले, लोग स्तब्ध रहते थे; उनके निकट पहुंचने पर, उनकी आँखों में करुणा उभर आती थी; और उनके आगे बढ़ जाने पर उनकी जय-ध्वनि होने लगती थी। राम कहीं मुस्कराकर एकत्रित भीड़ को देख लेते, कहीं हाथ उठाकर उनकी शांति की कामना करते-कहीं वृद्ध जनों के दीख पड़ने पर हाथ जोड़कर अभिवादन कर देते।

''भैया! मुझे सिद्धाश्रम से विदाई याद आ रही है।'' लक्ष्मण ने मुस्कराने के प्रयत्न के बीच, भारी गले से कहा।

''हां! कुछ वैसा ही है।'' राम बोले, ''किंतु सौमित्र! वहां लोगों के मन में हमारे प्रति करुणा नहीं थी।''

''मुझे जनकपुर से अपनी विदाई याद आने लगी, तो दोनों भाइयों को बुरा लगेगा।'' सीता ने बंकिम दृष्टि से बारी-बारी दोनों को देखा।

राम आश्वस्त हुए। वनवास के कारण सीता हताश नहीं थीं।

''पता होता कि भाभी इतनी ईर्ष्यालु हैं, तो भैया को पहले जनकपुर जाने के लिए तैयार कर लेता। ये उपालंभ तो न सुनने पड़ते। सिद्धाश्रम का काम तो लौटते हुए भी हो सकता था। स्वयं भी साथ होतीं तो सिद्धाश्रम की स्मृति बुरी न लगती।'' लक्ष्मण मुस्कराए।

''इसी बुद्धि के कारण तो तुम्हें अभी तक पत्नी नहीं मिली देवर!'' सीता ने चिढ़ाया, ''तुम्हारे भैया पहले सिद्धाश्रम गए, ताड़का और सुबाहु को मारा, मारीच को भगाया, बहुलाश्व और उसके पुत्र को दंड दिया, वनजा का उद्धार किया, अहल्या को प्रतिष्ठा दी और तब जनकपुर पधारे। उनके आने से पहले उनका यश पहुंचा। सब ने उन्हें सम्मान दिया।

सीधे चले आए होते, तो कोई पहचानता भी नहीं। अजगव के दर्शन भी न होते। वहीं पड़े रहते, अमराई में मुनियों के साथ।''

''वह अवसर तो मैं चूक गया भाभी! बच्चा था न! अब बताओ पत्नी प्राप्त करने के लिए क्या करूं?''

''बच्चे तो अब भी हो देवर!'' सीता मुस्कराईं, ''हां, वनवास की अवधि में तुम युवक हो जाओगे। इससे पूर्व वीरता के दो-चार काम कर, प्रतिष्ठा बना लेना। कोई-न-कोई वानरी या राक्षसी मिल ही जाएगी। सुना है उनमें कुछ असाधारण सुंदरियां होती हैं।''

''मैं अकेला उत्तर की ओर चला जाऊं भाभी? कम-से-कम मानवी तो मिलेगी : सुंदर न भी हुई तो क्या।''

''न देवर। अकेले कहीं मत जाना। उत्तर की ओर तो एकदम नहीं। उस ओर माता कैकेयी के सजातीय बसते हैं।''

''भैया! आप सुन रहे हैं।'' लक्ष्मण ने न्याय की मांग की, ''भाभी ने मेरे लिए कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा।''

राम ने अपनी चिन्ता झटक, एक क्षण के लिए मुस्कराकर उन दोनों को देखा, ''मैं नहीं सुन रहा।...तुम मेरी बात सुनो। सामने, सरयू के तट पर त्रिजट का आश्रम है। चित्ररथ तथा सुयज्ञ अपने रथी तथा कर्मचारियों के साथ वहां पहुंच चुके होंगे। वहीं हमें आगे की योजना बनानी है। तब सौमित्र यह निर्णय ले सकेंगे कि उन्हें किस दिशा में जाना है।''

''भैया सब कुछ सुन रहे थे।'' लक्ष्मण की आँखें तिरछी हो गईं, उनमें शिकायत भी थी और प्यार भी। सीता हँस पड़ीं।

उनके स्वागत के लिए, त्रिजट अपने आश्रम के द्वार पर सुयज्ञ तथा चित्ररथ के साथ खड़ा था, ''स्वागत राम!''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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