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राम कथा - अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6496
आईएसबीएन :81-216-0760-4

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, दूसरा सोपान

पर सीता! चार वर्षों के दाम्पत्य जीवन में राम ने सीता को अच्छी प्रकार जाना-समझा था। किंतु, लोक-चिंतन कहता है कि स्त्री कोमल होती है, उसका मन कठिनाइयों से भागता है, तथा वैभव और सुविधा की ओर झुकता है। सीता के आज तक के व्यवहार ने इस चिंतन का समर्थन नहीं किया था। वे सदा लोक-कल्याण की प्रवृत्ति की ओर झुकी थीं...किंतु आज से पहले तो राम उनके साथ इस प्रकार का कठिन वन्य जीवन व्यतीत करने के लिए बाहर भी नहीं निकले थे। सभव है, इस कठिन जीवन में सीता को असुविधा हो...

''देवी सीते!'' राम का स्वर बहुत मृदु था।

सीता ने चौंककर पति की ओर देखा, ''क्या बात है राम! आप मुझे 'प्रिये' नहीं कह रहे। इतने अतिरिक्त कोमल और शिष्ट क्यों हो रहे हैं? कहीं फिर से मुझे अयोध्या लौट जाने का प्रलोभनयुत्त। उपदेश देने का विचार तो नहीं है?''

राम की आधी चिंता दूर हो गई। वे कुछ हलके हुए और कुछ सहज भी। ''नहीं प्रिये! अयोध्या लौटने को नहीं कहूँगा; किंतु यह पूछने की इच्छा अवश्य है कि इस वन्य-जीवन में कोई असुविधा तो नहीं। वन में आने का कोई पश्चाताप, कोई उत्तर-विचार, कोई पुनर्विचार...?''

''झगड़े की इच्छा तो नहीं?'' सीता सुहास-भरी मुस्कान अधरों पर ले आईं।

''नहीं!'' राम मुस्वाराए, ''पर पत्नी की उचित देख-भाल मेरा कर्त्तव्य है। इसलिए उसकी सुविधा-असुविधा को तो जानना होगा। जो राम, सीता से विवाह कर उसे अपने घर लाया था, वह अयोध्या का संभावित युवराज था, वनवासी नहीं। मेरे मन में अपराध-भावना है प्रिये! मैं तुम्हें और लक्ष्मण को तुम लोगों के प्रेम का दंड दे रहा हूँ।''

सीता पुनः मुस्कराईं, ''प्रेम तो अपने-आपमें एक दंड है। प्रेम किया है, तो उसका दंड भी स्वीकार करना ही होगा। वह कोई नई बात तो नहीं किंतु, एक असुविधा मुझे है...।''

''क्या?'' राम ने उत्सुकता से पूछा, ''वही तो मैं भी जानना चाह रहा हूँ।''

सीता गंभीर हो गईं, ''यदि चौदह वर्षों तक मेरे पति मुझसे इसी प्रकार औपचारिक व्यवहार करते रहे; और एक भले आतिथेय के समान पग-पग पर मेरी असुविधाओं के विषय में पूछते रहे तो मुझे भय है कि मैं अपने आपको भी परछाईं लगने लगूंगी...'' राम जोर से हँस पड़े।

''मैं आपके साथ इसलिए आई थी कि हमारे बीच, राज-प्रासाद और राज-परिवार की सारी औपचारिकताएं समाप्त हो जाएंगी। मैं अपने पति के लिए सघन जनसंख्या वाले प्रदेश की एक इकाई न होकर, उनके इतनी निकट होऊंगी कि अनेक कामों के लिए मुझ पर निर्भर होंगे। हम दोनो सहज रूप से दो साथियों के समान कार्य करेंगे। मैं उन्मुक्त प्रकृति के बीच अपने प्रिय के साथ, जीवन के नये आयाम देखूंगी : और आत्म-निर्भर इकाई के रूप में, समाज के लिए कुछ उपयोगी हो सकूंगी...''

राम आगे बढ़ आए। उन्होंने सीता के कंधों पर अपने हाथ रख दिए, ''यही होगा प्रिये! यही होगा। जाने क्यों, मैं कभी-कभी, विभित्र संभावनाओं पर विचार करते-करते, कोई ऐसी बात सोचने लगता हूँ, जिसमें स्वय मुझे भी अपनी पत्नी की उदारता समझने में कठिनाई होने लगती है।'' उन्होंने सीता को अपनी बांहों में भर लिया, ''मुझे लगता है सीते! व्यक्ति कितना ही दृढ़, निश्चित तथा आत्मविश्वासी क्यों न हो यदि वह मनुष्य है तो उसके जीवन में कभी-न-कभी तो दुर्बल क्षण आते ही हैं-जब वह आशंकित होता है, असंभव संभावनाओं की कल्पना करता है, तथा स्वयं अपने पर तथा अपने संबंधों पर संदेह करता है।''

''प्रिय! ऐसे ही क्षणों में बल देने के लिए, सीता तुम्हारे साथ आई है।'' सीता ने अपना सिर राम के वक्ष पर टिका दिया।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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