जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
मेरे अन्दर कहीं जो एक ठोस कर्मठ बैठा है, वह कविता को-काव्य-रचना को-जीवन का विलास (Luxury) मात्र समझता है। जब वह जागता है, सक्रिय होता है, तब वह मेरे कवि को एक कोने में ले जाकर बिठा देता है-अब आप थोड़ी देर के लिए चुप रहिये। पर मेरा कवि भी बड़ा ज़िद्दी है, मेरा कर्मठ ज़रा-सा गाफिल हुआ नहीं कि वह खिसककर बीच कमरे में पहुँच जाता है और अपना राग अलापने लगता है। 'अपना' कहने में ही भूल हो गयी। राग उसका अपना नहीं होता। उसमें मेरा कर्मठ अपने ही अन्तर की प्रतिध्वनि सुनने लगता है, इसलिए उसका विरोध नहीं कर पाता।
एम० ए० (फाइनल) की तैयारी करते समय, मेरे पाठकों को याद होगा, मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अब जब तक परीक्षाएँ समाप्त नहीं हो जाती, मैं कविताओं को हाथ नहीं लगाऊँगा, पर नतीजा क्या हुआ था? परीक्षा के ठीक पहले कविता की पंक्तियाँ मेरे दिमाग में गूंजने लगी थी और बिना उन्हें रूप दिये मैं अपने मन को पाठ्यक्रम की ओर एकाग्र नहीं कर पाता था।
बारह बरस बाद मैं वही गलती फिर दुहराने चला था।
मैं एक सीमित समय में एक सीमित उद्देश्य पूरा करने के लिए विदेश जा रहा था। मैंने समझा था कि मैं अपने शोधक, अध्यापक, अधिक-से-अधिक कविता के विद्यार्थी-पारखी को साथ लेकर जा रहा है. अपने कवि को पीछे ही छोडे जा रहा हैं. पर मेरा कवि मेरे दिमाग की किसी परत में छिपकर केम्ब्रिज पहुँच गया था।
हवाई जहाज़ी यात्रा के कारण जिस तेज़ी से मैं अपने स्नेह-सुगठित परिवार से बीस घण्टे के अन्दर छह हज़ार मील की दूरी पर फेंक दिया गया था, उसमें मेरा भावाकुल होना स्वाभाविक था। अगर मैं चौबीस-पच्चीस की रूमानी उम्र में अपने को ऐसी स्थिति में पाता तो बड़े आँसू बहाता, बड़ी आहे भरता, रामगिरि आश्रम में पड़े विरही यक्ष के समान। यक्ष निश्चय अपनी जवानी में शापग्रस्त हुआ होगा। कहते हैं, यक्ष सदा जवान रहते हैं। न भी होते तो कालिदास उन्हें बना देते। कमसे-कम अपने यक्ष को उन्होंने ऐसा ही बना दिया है। यह तो मैं नहीं कहूँगा कि अपनी 45 वर्ष की अवस्था में मैं कम भावुक या कम भावप्रवण हो गया था, पर मेरा विवेक इतना अवश्य जग गया था कि भावनाओं पर अंकुश लगा सके, उन्हें अपने इच्छाबल से दबाकर रख सके। और इन्हीं दबी भावनाओं की परतों में ही तो मेरे कवि को छिपने की जगह मिल गयी। भावनाएँ एक सीमा के बाद कोई दबाव सहन नहीं कर पाती, और जब-जब ये सीमाएँ टूर्टी, मेरे कवि को शब्दों में मुखरित होना पड़ा।
मुझे अच्छी तरह याद है, केम्ब्रिज में मैंने अपनी पहली कविता विश्वा के जन्मदिन पर लिखी थी।* 'कवियों की कौम होती है बड़ी बदजात, लिखें वे किसी पर, करते हैं अपनी ही बात।'-इस कविता में भी मैंने जीवन की गम्भीरता की वकालत की थी, जो मेरे स्वभाव का अंग थी ही, और जिसे केम्ब्रिज के गम्भीर वातावरण में और प्रश्रय मिला था।
* 'देखें... का जन्मदिन' शीर्षक कविता, 'बुद्ध और नाचघर' में।
विश्वा और उनकी पत्नी कमला ने जो स्नेह, सदभाव, समादर मेरे प्रति दिखाया था, उससे मैं दिन-प्रतिदिन उनके निकट आता गया था। किसी दिन न जाने किस प्रसंग में विश्वा के जन्मदिन की चर्चा आ गयी और अनायास मेरे मुँह से निकल गया, 'विश्वा, तुम्हारे जन्मदिन पर मैं तुम्हें एक कविता लिखकर दूंगा।'
कविता क्या मैंने लिखकर दी, पंडोरा का बाक्स ही खोल दिया। यूनानी दंतकथा के अनुसार पंडोरा एक स्वर्ग-बाला थी, जिसे देवताओं ने प्रोमीथियस के भाई एपीमीथियस की पत्नी के रूप में भेजा था और दहेज में उसे एक सन्दूक दिया था, पर उसे खोलने की मनाही कर दी थी। नारी-सुलभ कौतूहल से एक दिन पंडोरा ने यह देखने को कि उस वर्जित बाक्स के अन्दर क्या है-वर्जित फल में एक अतिरिक्त आकर्षण होता ही है-उसका ढक्कन उठा दिया था और मानव की सारी आपदा-विपदाएँ उसके अन्दर से निकल-निकलकर संसार में फैल गयी थीं। सब के नीचे 'आशा' थी। इसके पूर्व कि वह भी निकले, पंडोरा ने ढक्कन छोड़ दिया था, और वही 'आशा' अब मनुष्य की सारी दुरवस्थाओं में उसे संभालती है। विश्वा के जन्मदिन पर लिखी रचना से मैंने कविता के बाक्स का ढक्कन ढीला कर दिया था और अपने प्रवास-भर उसे बन्द न कर सका। जैसे पंडोरा के बाक्स से 'आशा' मात्र न निकल पायी थी, वैसे ही मेरे बाक्स से भी शोध-कार्य पूरा करने की लगन न निकल पायी थी। उसी ने मेरी काव्य-रचना पर यत्किचित नियन्त्रण रखा, वरना मैं थीसिस लिखने के बजाय दो-चार कापियाँ कविता से भरकर लौट आता; और लोगों को कहने का मौका मिलता-'गये रहे हरि भजन को ओटन लगे कपास।' गनीमत यह हुई कि मैं हरि-भजन भी करके लौटा और 'कपास ओटन' करके भी, पर इन दोनों में कितनी कशमकश मैंने झेली, इसे मैं ही जानता हूँ।
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