उपन्यास >> हरि मन्दिर हरि मन्दिरहरनाम दास सहराई
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हरि मन्दिर
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हरि मन्दिर
‘जल्दी जाओ बेटा और उनकी गरदन नाप लो।’ बेटे का नाम
निसार खाँ
था। बहादुर जवान ने अपनी सेना को ऐसा दुड़की लगवायी कि कज़ाक काबू में आ
गए। उन्होंने नाक रगड़ी, मिन्नतें कीं। नादिर का हुक्म था कि सबकी गरदन
उड़ा दी जाय। निसार ने न जाने रिश्वत ले ली या हमदर्दी में आ गया, उसने
आधे लोगों को कत्ल करवा दिया और आधे लोंगों को भगा दिया। आधे सिर लेकर जब
बेटा नादिर से मिला, तो नादिर ने पूछा, ‘बस, इतने ही थे
?’
‘नहीं। आधे भाग गये। बड़ा हल्ला किया, पर हाथ से निकल गये। काबू में नहीं आए।’
‘तुमने माजून खा रखी थी ? नादिर का वली अहद इतना नालायक नहीं होना चाहिए। आधे लोगों को तुमने भगा दिया है। बच्चे, अगर तुम उन कज़ाकों के हाथ आ जाते, तो फिर तुम रहम की दरख़्वास्त करके देखते-पता चल जाता, वे तुम्हारे साथ क्या सलूक करते ! दुश्मन पर रहम करना नालायकी है। साँप देखो, तो सिर कुचल दो। पूँछ पर हाथ रखा नहीं कि वह डंक मारने से बाज नहीं आएगा !’ नादिर की आँखों में खून उतर आया। ‘इस हरामज़ादे की आँखों में गरम-गरम सलाखें फिरा दो। इसने हुकूमत के साथ दगा किया है !’ नादिरशाह ने हुक्म दिया।
‘नहीं। आधे भाग गये। बड़ा हल्ला किया, पर हाथ से निकल गये। काबू में नहीं आए।’
‘तुमने माजून खा रखी थी ? नादिर का वली अहद इतना नालायक नहीं होना चाहिए। आधे लोगों को तुमने भगा दिया है। बच्चे, अगर तुम उन कज़ाकों के हाथ आ जाते, तो फिर तुम रहम की दरख़्वास्त करके देखते-पता चल जाता, वे तुम्हारे साथ क्या सलूक करते ! दुश्मन पर रहम करना नालायकी है। साँप देखो, तो सिर कुचल दो। पूँछ पर हाथ रखा नहीं कि वह डंक मारने से बाज नहीं आएगा !’ नादिर की आँखों में खून उतर आया। ‘इस हरामज़ादे की आँखों में गरम-गरम सलाखें फिरा दो। इसने हुकूमत के साथ दगा किया है !’ नादिरशाह ने हुक्म दिया।
लक्खी जंगल
घने पड़ों का एक घेरा और उसकी नाभि में जलाशय। राजस्थान की रेतीली धरती
में पानी की छवि कुदरत की सबसे बड़ी नियामत है। पानी का छींटा तक नज़र आता
नहीं। पानी के लिए बिलखता रहता है राजस्थान।
बिल्लौर जैसा चमकदार शीतल जल। उसमें झलकती हुई पेड़ों की परछाइयां। सिक्खों का गुप्त स्थान। तराजू के एक पलड़े में सिक्ख का नाम रख लो दूसरे में मौत—पलड़े बराबर भले ही हो जायें, पर प्रसंग फिर भी रह जायेगा। सिक्ख का नाम भारी मौत फिर हल्की। किस मुँह से सिक्ख का नाम लिया जाये ! फिर भी सिक्खों का नाम लेने वाले बहुत थे। पंजाब के अपना ही खून थे। बेटे थे, पोते थे, भाई थे, जंवाई (दामाद) थे। पंजाब तो गैरों की सौ-सौ खिदमतें करता था, उन्हें आदर भाव देता था, फिर अपनों को क्यों न सीने से लगाता। सामने नहीं तो न सही, चोरी, रात-बेरात, चूरमें कूट-कूट कर, कटोरे में भर-भर कर खुद खिलाता पंजाब। कुकूमत का बहुत दबदबा था।
एक पेड़ की छांह में बैठे चार जन बातें कर रहे थे।
लम्बी-लम्बी, खुली, बावरी लटों और कटी मूँछों वाला, दिखने में पक्का सूफी, नाम बिजला सिंह—वह बोला:
‘सज्जनो, इसे मुसलमान मक्का कह लें या मदीना, इसे काशी कब लो या प्रयाग, हरिद्वार कहो या अयोध्या, सिंह इसे गोइंदवाल कह कर सिर नवा ले या अमृतसर को हृदय में बसा कर सिर झुका लें, हुकूमत इसे किला कह ले या छावनी, ज्यादातर लोग इसे मौत का घर कहते। हिदू श्रद्धालु शिवस्थान। कुछ सिंह दमदमा कह कर जी ठंडा कर लेते। लाहौर सूबा इस जगह को लक्खी जंगल के नाम से पुकारता। इन सभी बातों में से कोई भी बात झूठी नहीं है। सबकी सब सोलहों आने सच हैं—कसौटी पर कस कर परखी हुई।
‘सरकारी कागजों में जब लक्खी जंगल का नाम आता, तो वहां साथ ही यह लिखा होता कि यह जगह लुटेरों, आक्रामकों, हत्यारों, दरिंदों और डाकुओं का डेरा है। लक्खी जंगल हुकूमत की आँखों में कुकरे की तरह चुभता रहता। सूबे की मारक फौजें सिहों के गुप्त स्थानों की छांह तक न पा सकतीं। कोशिश बहुत करतीं; -पर हासिल कुछ न होता। सिंहों का जलाल है यह !’
‘जलाल तो बहुत है, पर वजूद कुछ नहीं है।’ तारा सिंह बोला।
‘मदारी का तमाशा नहीं है कि वजूद नज़र आ जाये !’ बिजला सिंह ने कहा, ‘साजिशें अंधेरों में ही पलती हैं। खामोशी के झुटपुटे में उनका जन्म होता है। बंधे हुए मुँह और कसे हुए कमर पट्टे उन्हें परवान चढ़ाते हैं उन्हें जवानी के द्वार तक पहुँचाने के लिए बड़ा संघर्ष करना पड़ता है। समझ में आयी मेरी बात ?’
तारा सिंह जोश में आ गया, सीने पर हाथ मारता हुआ बोला, ‘सिंह जी, यह हमारा कीरतपुर है, चमकौर साहिब है ! आनंदपुर की गढ़ी का दूसरा रूप है यह लक्खी जंगल !’
मनसा सिंह ने यों ही बीच में टांग अड़ा दी, ‘इसे सरहंद नहीं कहा जा सकता ? कत्लगढ़ से कम है यह ?
बिजला सिंह ने अपना संयम बरकरार रखा, सिंह जी, यह न सरहंद है, न कत्लगढ़’, उसने कहा, ‘लक्खी जंगल में कोई भी आदमी किसी दूसरे के खून में अपने हाथ नहीं रंग सकता। यह पवित्र स्थान है। इसे तब तक पवित्र रखा जाये। जब तक हमारे बीच में दरार नहीं पड़ती। अगर दरार पड़ गयी, तो फिर यह गुरदास नंगल बन जाये। सिंह अब ऐसा ग़लती नहीं करेंगे। एक भूल हो गयी। भूलें बार-बार नहीं हुआ करतीं। एक बभूल ने ही घर-बार को नष्ट कर डाला है...वरना सिंह किसे पल्ले बांधते थे !’
मनसा सिंह बोल उठा, ‘मुझे आज पता चला है कि लक्खी जंगल एक हवा है, बाघ है, शेर बब्बर है हुकूमत के लिए ! मैं तो यही समझता था कि सिहों ने इसे चोरों की तरह छुपने की जगह बना रखा है !’
‘हुकूमत के लिए तो वही कुछ है, लेकिन सिंहों के लिए यह एक गढ़ है, बिना बुर्जी, बिना दीवार और बिना खाई का किला है।’ बिजला सिंह ने उत्तर दिया।
मनसा सिंह बोल उठा, ‘मुझे तो बड़ा प्यार हो गया है। मेरी हमदर्दी बढ़ गयी है। मैंने कभी ऐसा सोचा या सुना नहीं था हमारा काम था, जत्थेदार का वचन मानते जाओ, सेवा करते रहो, मेवा मिलेगा !’
‘आराम से बैठ जाओ और सुन लो कि लक्खी जंगल क्या है, ‘बिजला सिंह ने अपनी छोटी-सी दाढ़ी पर हाथ फिराया और दस्तार को संवारा, ‘सिंह इसका इतना सत्कार क्यों करते हैं। सारा पंजाब इसके नाम पर सिर क्यों झुकाता है...’
श्रद्धा और प्यार के स्वर में बिजला सिंह ने लक्खी जंगल का वर्णन करना शुरू किया :
‘लक्खी जंगल सूरमाओं, योद्धाओं और वीरों की बस्ती का नाम है।’
‘लक्खी जंगल में वही लोग रह सकते हैं, जो मौत को हंस-हंस कर गले लगाने में बिल्कुल न घबरायें।’
‘लक्खी जंगल दुस्साहसी सूरमाओं का गढ़ है।’
‘प्रतिज्ञा करने और इस पर पूरा उतरने वालों की जन्मभूमि है लक्खी जंगल।’
‘लक्खी जंगल में वे लोग बसते हैं, जो गुरु के नाम की माला जपते हैं। गुरु के सहारे जीने वालों का घुरुधाम है यह।’
‘लक्खी जंगल एक मंदिर है, उन पुजारियों का, जिनका गुरु पर विश्वास अटल है।’
‘लक्खी जंगल में वासी वे लोग हैं, जो अपने मुँह से निकले शब्द पर प्राण दे देते हैं, और उफ़ तक नहीं करते, यह गांव उनका है।’
‘लक्खी जंगल एक दोधारी तलवार है। इसके वासियों का निश्चय है : तब तक धर्म निभाते चले जाओ, जब तक केश और श्वास हैं।’
‘लक्खी जंगल आस्थावानों का एक पड़ाव है।’
‘बांट कर खाना लक्खी जंगल वालों का धर्म है।’
‘गुरु की गोलक, गरीब का मुँह है लक्खी जंगल। इसे गुरु का सीना भी कहा जा सकता है।’
‘लक्खी जंगल कृपाण की वह म्यान है, जिसके बच्चे जालिम के लिए तीखी, दोधारी तलवार हैं। मजलूस के लिए उसके हृदय में प्यार है, आंखों में लाली है, लाज है, शर्म और हया है।’
‘लक्खी जंगल एक शिक्षालय है, जिसके विद्यार्थी यह पाठ पढ़ते हैं : ‘जो तोहे प्रेम खेलन का चावु, सिर धर तली गली मोरि आवु।’
‘लक्खी जंगल उन खुले-मन लोगों की छावनी है, जो अपनी सारी जिन्दगी एक ही भूरे में काट लेते हैं—चाहे अषाढ़ हो चाहे पौष !’
‘लक्खी जंगल उन सूरमाओं का डेरा है, जिनकी जायदाद है एक घोड़ा और भूरी माला। विरसे में मिली हुई तलवार उनकी बख्शीश है और केश हैं गुरु की मुहर।’
‘लक्खी जंगल उन महापुरुषों का तीर्थ है, जो हृदय में वाणी का स्मरण करते रहते हैं।
‘लक्खी जंगल के सिंहों की घूँटी है, विश्वास और भावना।’
‘लक्खी जंगल के वासियों के घर हैं उनके घोड़ों की काठियां और उनका सबसे बड़ा शस्त्र उस समय था घोड़ा।’
‘लक्खी जंगल उन धर्मियों का टोला है, जो जालिमों के लिए मौत बन जाते हैं और पराई औरत को मां, बहन बेटी समझते हैं।’
‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा ? पहाड़ पर बाँसुरी बजती किसने सुनी ? लक्खी जंगल ऐसी ही एक छावनी है, जिसके करतब किसी ने नहीं देखे हैं !’
‘लक्खी जंगल के बारे में बहुत कुछ मशहूर है। उसमें से बहुत कुछ सच है। सिंह अभी-अभी थे और अभी-अभी हिरनों के सींगो पर सवार हो कर अलोप हो गये। भूतों का डेरा है। पल-भर में गायब हो जाते। आसमान खा जाता या जमीन निगल जाती—कोई नहीं जानता।’
‘इसीलिए उसे भूतों का डेरा कहा जाता है।’
‘लक्खी जंगल में सिंह छावनियां डालकर रहते हैं। उनके बारे में एक आख्यान बन गया है : ‘सिंह मकान छोड़ कर भाग गये !’ वे हारे नहीं। उन्होंने दिल नहीं छोड़ा, बल्कि वे नये हमले की तैयारी कर रहे हैं। एकाएक जैसे कोई बौछार पड़ती है, वैसे ही अचानक हमला ! खून बरसा, लहू के फौवारे छूटे, दुश्मन की फौजों के नसें निचोड़ी, बोटियां उड़ा दीं....यह नया ढंग है युद्ध का। सिंह नेताओं ने नया आविष्कार कर डाला है।’
‘लक्खी –जंगल पर हम न्योछावर ! खायेंगे भुने हुए चने और डकार लेंगे काबुली बादामों का ! खायेंगे बासी रोटियां और स्वाद लेंगे मीठे प्रसाद का ! पीयेंगे कढ़ी और अमृती कह कर उसे पवित्र कर लेंगे ! होगा एक और सवा लाख कह कर सामने वाले की जान निकाल लेगा !.........
‘लक्खी जंगल उन दुस्साहसी सिंहों का स्थान है, जो संगत, पंगत और वाणी पर ईमान रखते हैं।’
‘लक्खी जंगल उन सिंहों की छावनी है, जिनके बारे में मुगल शाही लोग कहते हैं कि सिंह महापुरुष हैं, देवता है।’
किसी सर्प की तरह अचानक फन उठाते हुए, मनसा सिंह बीच में ही बोल उठा, ‘भाई, सो कैसे ?’
बिजला सिंह बोल उठा, ‘सिंहों ने हमला किया एक खेमे पर। जब उन्हें पता चला कि यह खेमा बेगमों का है, उन्होंने फौरन अपनी तलवारें म्यान में रख लीं। दोनों हाथ जोड़कर उन बीबी-रानियों से क्षमा मांगी, जो कुछ अपने पास था, सब उनके सामने रख दिया, जो कुछ लूट कर लाये थे, वह भी उनके सामने डाल दिया। मोहरों का ढेर लग गया। वहीं से लौट आये। बहनों और बेटियों के घर आये थे न भाई !’
‘मां के दूध की तरह पवित्र है लक्खी जंगल—यह बात, यह कथा, यह वारदात सिर्फ लक्खी जंगल ही जानता है। पंजाब के बहुत गिने-चुने लोग ही इस बात को जानते हैं। तुमने सुन ली है, पल्ले बांध लो।’
‘किस दिन इन्हें पंजाब का सिंहासन संभालना है। घोड़े-जोड़े और कलगियां इनके लिये होंगी, उन जालिम मुगलों के लिए नहीं, उनके सिर के लिए तो सात चूल्हों की ख़ाक !’
बिजला सिंह ने कह कर हाथ जोड़ दिये : ‘धन्य, धन्य, धन्य, धन्य, गुरु गरीब-नवाज़ !’
बिल्लौर जैसा चमकदार शीतल जल। उसमें झलकती हुई पेड़ों की परछाइयां। सिक्खों का गुप्त स्थान। तराजू के एक पलड़े में सिक्ख का नाम रख लो दूसरे में मौत—पलड़े बराबर भले ही हो जायें, पर प्रसंग फिर भी रह जायेगा। सिक्ख का नाम भारी मौत फिर हल्की। किस मुँह से सिक्ख का नाम लिया जाये ! फिर भी सिक्खों का नाम लेने वाले बहुत थे। पंजाब के अपना ही खून थे। बेटे थे, पोते थे, भाई थे, जंवाई (दामाद) थे। पंजाब तो गैरों की सौ-सौ खिदमतें करता था, उन्हें आदर भाव देता था, फिर अपनों को क्यों न सीने से लगाता। सामने नहीं तो न सही, चोरी, रात-बेरात, चूरमें कूट-कूट कर, कटोरे में भर-भर कर खुद खिलाता पंजाब। कुकूमत का बहुत दबदबा था।
एक पेड़ की छांह में बैठे चार जन बातें कर रहे थे।
लम्बी-लम्बी, खुली, बावरी लटों और कटी मूँछों वाला, दिखने में पक्का सूफी, नाम बिजला सिंह—वह बोला:
‘सज्जनो, इसे मुसलमान मक्का कह लें या मदीना, इसे काशी कब लो या प्रयाग, हरिद्वार कहो या अयोध्या, सिंह इसे गोइंदवाल कह कर सिर नवा ले या अमृतसर को हृदय में बसा कर सिर झुका लें, हुकूमत इसे किला कह ले या छावनी, ज्यादातर लोग इसे मौत का घर कहते। हिदू श्रद्धालु शिवस्थान। कुछ सिंह दमदमा कह कर जी ठंडा कर लेते। लाहौर सूबा इस जगह को लक्खी जंगल के नाम से पुकारता। इन सभी बातों में से कोई भी बात झूठी नहीं है। सबकी सब सोलहों आने सच हैं—कसौटी पर कस कर परखी हुई।
‘सरकारी कागजों में जब लक्खी जंगल का नाम आता, तो वहां साथ ही यह लिखा होता कि यह जगह लुटेरों, आक्रामकों, हत्यारों, दरिंदों और डाकुओं का डेरा है। लक्खी जंगल हुकूमत की आँखों में कुकरे की तरह चुभता रहता। सूबे की मारक फौजें सिहों के गुप्त स्थानों की छांह तक न पा सकतीं। कोशिश बहुत करतीं; -पर हासिल कुछ न होता। सिंहों का जलाल है यह !’
‘जलाल तो बहुत है, पर वजूद कुछ नहीं है।’ तारा सिंह बोला।
‘मदारी का तमाशा नहीं है कि वजूद नज़र आ जाये !’ बिजला सिंह ने कहा, ‘साजिशें अंधेरों में ही पलती हैं। खामोशी के झुटपुटे में उनका जन्म होता है। बंधे हुए मुँह और कसे हुए कमर पट्टे उन्हें परवान चढ़ाते हैं उन्हें जवानी के द्वार तक पहुँचाने के लिए बड़ा संघर्ष करना पड़ता है। समझ में आयी मेरी बात ?’
तारा सिंह जोश में आ गया, सीने पर हाथ मारता हुआ बोला, ‘सिंह जी, यह हमारा कीरतपुर है, चमकौर साहिब है ! आनंदपुर की गढ़ी का दूसरा रूप है यह लक्खी जंगल !’
मनसा सिंह ने यों ही बीच में टांग अड़ा दी, ‘इसे सरहंद नहीं कहा जा सकता ? कत्लगढ़ से कम है यह ?
बिजला सिंह ने अपना संयम बरकरार रखा, सिंह जी, यह न सरहंद है, न कत्लगढ़’, उसने कहा, ‘लक्खी जंगल में कोई भी आदमी किसी दूसरे के खून में अपने हाथ नहीं रंग सकता। यह पवित्र स्थान है। इसे तब तक पवित्र रखा जाये। जब तक हमारे बीच में दरार नहीं पड़ती। अगर दरार पड़ गयी, तो फिर यह गुरदास नंगल बन जाये। सिंह अब ऐसा ग़लती नहीं करेंगे। एक भूल हो गयी। भूलें बार-बार नहीं हुआ करतीं। एक बभूल ने ही घर-बार को नष्ट कर डाला है...वरना सिंह किसे पल्ले बांधते थे !’
मनसा सिंह बोल उठा, ‘मुझे आज पता चला है कि लक्खी जंगल एक हवा है, बाघ है, शेर बब्बर है हुकूमत के लिए ! मैं तो यही समझता था कि सिहों ने इसे चोरों की तरह छुपने की जगह बना रखा है !’
‘हुकूमत के लिए तो वही कुछ है, लेकिन सिंहों के लिए यह एक गढ़ है, बिना बुर्जी, बिना दीवार और बिना खाई का किला है।’ बिजला सिंह ने उत्तर दिया।
मनसा सिंह बोल उठा, ‘मुझे तो बड़ा प्यार हो गया है। मेरी हमदर्दी बढ़ गयी है। मैंने कभी ऐसा सोचा या सुना नहीं था हमारा काम था, जत्थेदार का वचन मानते जाओ, सेवा करते रहो, मेवा मिलेगा !’
‘आराम से बैठ जाओ और सुन लो कि लक्खी जंगल क्या है, ‘बिजला सिंह ने अपनी छोटी-सी दाढ़ी पर हाथ फिराया और दस्तार को संवारा, ‘सिंह इसका इतना सत्कार क्यों करते हैं। सारा पंजाब इसके नाम पर सिर क्यों झुकाता है...’
श्रद्धा और प्यार के स्वर में बिजला सिंह ने लक्खी जंगल का वर्णन करना शुरू किया :
‘लक्खी जंगल सूरमाओं, योद्धाओं और वीरों की बस्ती का नाम है।’
‘लक्खी जंगल में वही लोग रह सकते हैं, जो मौत को हंस-हंस कर गले लगाने में बिल्कुल न घबरायें।’
‘लक्खी जंगल दुस्साहसी सूरमाओं का गढ़ है।’
‘प्रतिज्ञा करने और इस पर पूरा उतरने वालों की जन्मभूमि है लक्खी जंगल।’
‘लक्खी जंगल में वे लोग बसते हैं, जो गुरु के नाम की माला जपते हैं। गुरु के सहारे जीने वालों का घुरुधाम है यह।’
‘लक्खी जंगल एक मंदिर है, उन पुजारियों का, जिनका गुरु पर विश्वास अटल है।’
‘लक्खी जंगल में वासी वे लोग हैं, जो अपने मुँह से निकले शब्द पर प्राण दे देते हैं, और उफ़ तक नहीं करते, यह गांव उनका है।’
‘लक्खी जंगल एक दोधारी तलवार है। इसके वासियों का निश्चय है : तब तक धर्म निभाते चले जाओ, जब तक केश और श्वास हैं।’
‘लक्खी जंगल आस्थावानों का एक पड़ाव है।’
‘बांट कर खाना लक्खी जंगल वालों का धर्म है।’
‘गुरु की गोलक, गरीब का मुँह है लक्खी जंगल। इसे गुरु का सीना भी कहा जा सकता है।’
‘लक्खी जंगल कृपाण की वह म्यान है, जिसके बच्चे जालिम के लिए तीखी, दोधारी तलवार हैं। मजलूस के लिए उसके हृदय में प्यार है, आंखों में लाली है, लाज है, शर्म और हया है।’
‘लक्खी जंगल एक शिक्षालय है, जिसके विद्यार्थी यह पाठ पढ़ते हैं : ‘जो तोहे प्रेम खेलन का चावु, सिर धर तली गली मोरि आवु।’
‘लक्खी जंगल उन खुले-मन लोगों की छावनी है, जो अपनी सारी जिन्दगी एक ही भूरे में काट लेते हैं—चाहे अषाढ़ हो चाहे पौष !’
‘लक्खी जंगल उन सूरमाओं का डेरा है, जिनकी जायदाद है एक घोड़ा और भूरी माला। विरसे में मिली हुई तलवार उनकी बख्शीश है और केश हैं गुरु की मुहर।’
‘लक्खी जंगल उन महापुरुषों का तीर्थ है, जो हृदय में वाणी का स्मरण करते रहते हैं।
‘लक्खी जंगल के सिंहों की घूँटी है, विश्वास और भावना।’
‘लक्खी जंगल के वासियों के घर हैं उनके घोड़ों की काठियां और उनका सबसे बड़ा शस्त्र उस समय था घोड़ा।’
‘लक्खी जंगल उन धर्मियों का टोला है, जो जालिमों के लिए मौत बन जाते हैं और पराई औरत को मां, बहन बेटी समझते हैं।’
‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा ? पहाड़ पर बाँसुरी बजती किसने सुनी ? लक्खी जंगल ऐसी ही एक छावनी है, जिसके करतब किसी ने नहीं देखे हैं !’
‘लक्खी जंगल के बारे में बहुत कुछ मशहूर है। उसमें से बहुत कुछ सच है। सिंह अभी-अभी थे और अभी-अभी हिरनों के सींगो पर सवार हो कर अलोप हो गये। भूतों का डेरा है। पल-भर में गायब हो जाते। आसमान खा जाता या जमीन निगल जाती—कोई नहीं जानता।’
‘इसीलिए उसे भूतों का डेरा कहा जाता है।’
‘लक्खी जंगल में सिंह छावनियां डालकर रहते हैं। उनके बारे में एक आख्यान बन गया है : ‘सिंह मकान छोड़ कर भाग गये !’ वे हारे नहीं। उन्होंने दिल नहीं छोड़ा, बल्कि वे नये हमले की तैयारी कर रहे हैं। एकाएक जैसे कोई बौछार पड़ती है, वैसे ही अचानक हमला ! खून बरसा, लहू के फौवारे छूटे, दुश्मन की फौजों के नसें निचोड़ी, बोटियां उड़ा दीं....यह नया ढंग है युद्ध का। सिंह नेताओं ने नया आविष्कार कर डाला है।’
‘लक्खी –जंगल पर हम न्योछावर ! खायेंगे भुने हुए चने और डकार लेंगे काबुली बादामों का ! खायेंगे बासी रोटियां और स्वाद लेंगे मीठे प्रसाद का ! पीयेंगे कढ़ी और अमृती कह कर उसे पवित्र कर लेंगे ! होगा एक और सवा लाख कह कर सामने वाले की जान निकाल लेगा !.........
‘लक्खी जंगल उन दुस्साहसी सिंहों का स्थान है, जो संगत, पंगत और वाणी पर ईमान रखते हैं।’
‘लक्खी जंगल उन सिंहों की छावनी है, जिनके बारे में मुगल शाही लोग कहते हैं कि सिंह महापुरुष हैं, देवता है।’
किसी सर्प की तरह अचानक फन उठाते हुए, मनसा सिंह बीच में ही बोल उठा, ‘भाई, सो कैसे ?’
बिजला सिंह बोल उठा, ‘सिंहों ने हमला किया एक खेमे पर। जब उन्हें पता चला कि यह खेमा बेगमों का है, उन्होंने फौरन अपनी तलवारें म्यान में रख लीं। दोनों हाथ जोड़कर उन बीबी-रानियों से क्षमा मांगी, जो कुछ अपने पास था, सब उनके सामने रख दिया, जो कुछ लूट कर लाये थे, वह भी उनके सामने डाल दिया। मोहरों का ढेर लग गया। वहीं से लौट आये। बहनों और बेटियों के घर आये थे न भाई !’
‘मां के दूध की तरह पवित्र है लक्खी जंगल—यह बात, यह कथा, यह वारदात सिर्फ लक्खी जंगल ही जानता है। पंजाब के बहुत गिने-चुने लोग ही इस बात को जानते हैं। तुमने सुन ली है, पल्ले बांध लो।’
‘किस दिन इन्हें पंजाब का सिंहासन संभालना है। घोड़े-जोड़े और कलगियां इनके लिये होंगी, उन जालिम मुगलों के लिए नहीं, उनके सिर के लिए तो सात चूल्हों की ख़ाक !’
बिजला सिंह ने कह कर हाथ जोड़ दिये : ‘धन्य, धन्य, धन्य, धन्य, गुरु गरीब-नवाज़ !’
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