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वरुण के बेटे

नागार्जुन

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6994
आईएसबीएन :9788126701827

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सुविख्यात प्रगतिशील कवि-कथाकार नागार्जुन का बहुचर्चित उपन्यास ...

Varun Ke Bete - A Hindi Book - by Nagarjun

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सुविख्यात प्रगतिशील कवि-कथाकार नागार्जुन का यह बहुचर्चित उपन्यास बड़े-बड़े गढ़ों-पोखरों पर निर्भर मछुआरों की कठिन जीवन-स्थितियों को अनेकानेक उन्तरंग विवरणों सहित उकेरता है। लगता है, लेखक बरसों उन्हीं के बीच रहा है-वह उनकी तमाम अच्छाइयों-बुराइयों से गहरे परिचित है और उनके स्वभाव-अभाव को भी भली-भाँति पहचानता है। तभी तो वह खुरखुन और उसके परिवार को केन्द्र में रखते हुए भी मछुंआरा बस्ती मलाही-गोंढियारी के कितने ही स्त्री-पुरुषों को हमारे अनुभव का स्थायी हिस्सा बना देता है। फिर चाहे वह पोखरों पर काबिज शोषक शक्तियों के विरुद्ध खुरखुन की अगुवाई में चलनेवाला संघर्ष हो अथवा मधुरी-मंगल के बीच मछलियों-सा तैरता और महकता प्यार। अजूबा नहीं कि कहीं हम स्वयं को खुरखुन की स्थिति में पाते हैं तो कहीं मधुरी-मंगल की दशा में।

वस्तुतः नागार्जुन अपने कथा-परिवेश को कहकर नहीं, रचकर उजागर करते हैं। एक पूरी धरती, एक पूरा परिवेश और फिर शब्दांकुरों की शक्ल में विकसित होती हुई कथा। इस सन्दर्भ में उनका यह उपन्यास एक अप्रतिम स्थान रखता है।

 

एक

 

केले के मोटे-मोटे थंम, कटे हुए। सात-आठ रहे होंगे। छै-छै हाथ लंबे। वे एक-दूसरे से सटाकर बाँधे गए थे। अच्छी-खासी नाव का काम दे रहे थे।
घुप्प अँधेरा। कड़ाके की सर्द।
नीचे अथाह पानी। ऊपर नक्षत्र-खचित नील आकाश।
परछाई में तारे जँच नहीं पा रहे थे क्योंकि छोटी-बड़ी हिलकोरें पानी को चंचल किए हुए थीं। कदली-थंभों की यह नाव पोखर की छाती पर हचकोले खा रही थी। बदन की समूची ताकत बाँहों में बटोरकर जाल फेंकते वक्त इसका आधा हिस्सा पानी के अंदर धँस जाता था और तब उस अतिरिक्त दबाव से जलराशि की मोटी-मोटी तरंल-मालाएँ एक के बाद एक मिनटों तक उमड़ती रहतीं थी।

कोई मामूली तलइया या बागान के अंदर का साधारण चभच्चा तो थी नहीं, वह तो अपने इलाके का प्रख्यात जलाशय ‘गढ़-पोखर’ था। अवाम की तीखी-खुरदरी जुबान पर घिसते-घिसते गढ़-पोखर अब ‘गरोखर’ हो गया था। चारों तरफ के भिड़ किनारों के बड़े-बड़े कछार, बीच का पानीवाला बड़ा हिस्सा-कुल मिलाकर पचास एकड़ ज़मीन छेके हुए था गरोखर।
जरा दूर से देखने पर गरोखर की छाती पर सरकती-सी दो छायाएँ अँधेरे में काले पत्थर की लाट-सी लगती थीं। एक मानव-छाया खड़ी थीं, दूसरी उकड़ूँ बैठी थी। थंभों का पूला नाव बना हुआ मज़े में इधर-उधर डोल रहा था।
बीच-बीच में फुसफुसाहट....
-खुरखुन !
-हाँ ?

-कितनी हुई कुल ?
-पंद्रह और सात।
फिर थूक फेंकने की आवाज़, पिच्च।
फिर जाल फेंकने की तैयारी। नाव हिलने लगी।
मोटी आवाज, धब्ब !
पानी में मानों लोंदा गिरा। यह मछलियों के लिए चारा डाला गया था।
दो जोड़ी सतर्क आँखें गहन तिमिर की मोटी पर्त छेदकर पानी पर जमीं थीं।
बुल-बुल-बुल-बुल-बुल-बुल-लुव-बुब-बुब.....बुलबुले, उनकी बुड़बुड़ाहट ! महीन और मीठी !
-भोला, रे भोला !
-उँ !

-देखता क्या है ? फेंक जाल !
-उँ !!
बदन की समूची ताकत कलेजे मे बटोरकर भोला ने बिजली की फुर्ती से बाँह घुमाई, मूठ खोलकर जाल पानी में फेंक दिया-झा………  प।
बाएँ हाथ की कलाई में काफी डोरी लपेट रखी थी, उसे भोला ने ढीली करके छोड़ दिया। इधरवाली छोर हाथ से बँधी थी।
अब ठिठुरन महसूस हुई तो अंजलि में मुँह की भाफ भरकर अँगुलियों को आपस में मसल लिया। छोटी लड़की सिलेबिया सीने से चिपकके सोया करती है, अचानक उसका चेहरा-मोहरा आँखों में नाच उठा
समेटते समय लगा कि जाल बेहद भारी हो उठा है।
साथी को सकते में जानकर खुरखुन बोला-सेंवार मे तो नहीं उलझा है ?
-सेंवार इधर कहाँ ! और, मछलियाँ तो हो ही नहीं सकती !
-अच्छा, देखने दे !

तो उतरों, धँसों अंदर।
अँधेड़ और नाटा खुरखुन चार अंगुल चौड़ी कौपीन कमर में डाले हुए था। पानी में उतरकर उसने गोता लगाया।
गरोखर तीन सौ साल पुराना जलाशय था। चारों ओर भिड़ों और कछारों का बुरा हाल था। बरसात के मौसम में पानी के साथ बहकर आनेवाली मिट्टी उसकी गहराई बराबर कम करती आई थी। फिर भी चौदह-पंद्रह फुट का बाँस ही गरोखर की थाह ले सकता था।

भोला और खुरखुन की यह नाव गरोखर के ठीक बीचोबीच नहीं थी।
पच्छिम की तरह जहाँ पानी दस फुट गहरा था, वहीं वे अपनी किस्मत आजमा रहे थे।
नाव से चार गज की दूरी पर खुरखुन पानी के अंदर गया था। जाड़े के मौसम मे रात के वक्त तालाब या झील का पानी अंदर-अंदर गुनगुना-सा लगता है। अंदर जाकर पहले तो उसने जाल के सहारे मछलियाँ टटोलने की कोशिश की। तीन-चार मझोले आकार की मालूम हुई। दम फूलने लगा तो ऊपर आ गया, क्षण भर साँस लेकर फिर डुबकी लगाई। अबकी जरा देर तक खुरखुन अंदर रहा।
जाल की किनारी टटोलता हुआ अंदर वह चक्कर मारने लगा-शी ई ई ई ई ई बुआरी ने दाहिने पैर का अंगूठा काट खाया ! यह सुसरी होती ही ऐसी है ! पूस के पाले ने यों भी बोटी-बोटी को सुन्न कर दिया था। फू ऊ ऊ ऊ ऊ ऊ ऊ....यह लो ! अरे, जाल की किनारी तो यहाँ लकड़ी के ढोंके से उलझी पड़ी है !....
दम फूलने लगा तो खुरखुन फिर ऊपर आ गया।
-क्या है ?

भोला उसी तरह जाल की डोरी को टाने हुए था। ढील नहीं दे रहा था कि छोटी मछलियाँ कहीं खिसक न जाएँ ! क्षण भर बाद भोला ने फिर कहा-बोलते नहीं हो कुछ !
-ठहर !
खुरखुन अब तीसरी दफे पानी के भीतर गया।
जाल की किनारी के सहारे सर्र से लकड़ी के ढोंके तक पहुँचा।
टोह लेकर मालूम किया तो किनारी की लोहेवाली भारी-भारी मोटियों में से दो को ढोंके की दंतुर खोड़र में फंसा पाया। अब क्या हो ? तोड़ें तो ये टूटने को नहीं ? खुरखुन को भोला का चाकू याद आया। वह फिर ऊपर आया।
नाव पर अलग दूसरी खँचिया में भोला की आधी बाँह की सिकुड़ी-सिमटी कमीज पड़ी थी। उसी की पाकिट मे चाकू था। भोला ने निकालकर दिया।

चाकू लेकर वह चौथी बार पानी के अंदर गया और उलझे जाल को छुड़ा लिया। एक तो निकली, मगर दूसरी गोटी से हाथ धोना पड़ा।
इस धींगामुश्ती में मछलियाँ भी भाग गई। चार-पाँच सेर वज़न का एक रोहूँ, उससे दुगुना एक भाकुर और डेढ़ गुनी मोदनी। बस, तीन ही शिकार इस खेवे में हाथ आए। हाँ, एक कछुआ महाराज भी साथ थे।
डुबकियाँ लगाने में पानी के अंदर खुरखुन के पंद्रह-एक मिनट तो ज़रूर गुज़रे होंगे कि इतने में कही से टिटहरी बोली-टिट्-टिहू-टिहूट्-टिट्-टिट्-टिट्...!!
मछलियों से भरा खाँचा हिलाकर खुरखुन बोला-उहूँ, अब बस कर आज रहने दे भोला, टिटहरी रोती है कलमुँही।
देर भी तो काफी हो गई ?-जाल झाड़ते-झाड़ते भोला ने कहा।

बीस फुट का लग्गा (बाँस) साथ था। खुरखुन ने उसे उठा लिया। अब उन्हें जल्दी घर पहुँचना था। वह फुर्ती से नाव खेने लगा। मन ही मन निश्चय किया कि अबकी गर्मियों में इस ढोंके को बाहर निकाल देगा। जाने कब का पड़ा है सुसरा....
जाल सँभाल-सँभूलकर भोला उकड़ूँ बैठ गया था। उसका मुँह ऊपर को उठा था, निगाहें आसमान पर टिकी थीं।
काले पाख की दशमी तिथि का अधुरा पीला-पीला चाँद निकल आया था। तारे अब भी ढीठ बने हुए थे। अपनी-अपनी शान मे चमक रहे थे। गरोखर की हल्की-हल्की पतली-पतली भाप ऊपर उठकर पूस के उन कुहासों को घना बना रही थी।
भोला की तलहथी पर अब तम्बाकू और चूना थे। उन्हें मसल-मसलकर वह खैनी तैयार कर रहा था।
अंगुठा छोड़कर दाहिने हाथ की चारों अँगुलियों से भोला ने जब बाएँ हाथ पर की खैनी को ठोका तो अनायास उसकी नजरें हट आईं। सामने कछार करीब आ गई थी। डबल जूम खैनी खुरखुन को थमाकर बाकी खुद फाँक गया।
केले के थंभोंवाली वह नाव किनारे आ लगी।

मछलियों से भरे हुए दोनों खाँचे उतारे गए। नाव परे धकेल दी गई। भोला ने अपनी सूखी धोती और हाफ कमीज़ पहन ली। खुरखुन ने सूखा गमछा और गोल गर्दनवाली निमस्तीन।
खाँचे काफी वज़नदार हो गए थे। उन्हें टाँग-टूँगकर दोनों घर की तरफ चले।
मछुओं की बस्ती गरोखर से दूर नहीं थी, डेढ़-दो फर्लांग का फासला रहा होगा। मलाही-गोंढियारी गो कि अलग-अलग दो आबादियां थीं मगर दोनों नाम साथ चलते थे। बाँसों का पतला-सा एक जंगल और पुराने जमाने की एक ऊजड़-सी अमराई; मलाही और गोंढ़ियारी के बीच बस इतना ही व्यवधान था।
इधर से पहले मलाही पड़ती थी, बाद को गोंढ़ियारी।

भोला और खुरखुन बस्ती-मलाही के अंदर घुसे तो दो-तीन कुत्ते झाँउ-झाँउ भाँउ-भाउँ करते सड़क पर निकल आए। कुछ दूर तक उन्होंने मछुओं का पीछा किया। गाँव के छोर पर सड़क के किनारे पक्का कुआँ था और पाकड़ के दो जवान पेड़ थे, खूब सुंदर और छतनार ! वहीं जरा हटकर किसानों का साझा खलिहान फैला पड़ा था। जीमड़ के खंभे, बाँस के कैलियों के हातावार घिरावे; उनके, छोटी-मझोली-बड़ी परिधिवाले अनेकों खलिहान।
कई खलिहानों में धान की अगहनी फसलों के बोझ करीने से सजाकर रखे हुए थे। रात अभी ढाई पहर बीत चुकी थी तो भी दो-तीन खलिहानों से दंवरी पर जुते बैल हाँकने की ललकार बढ़-बढ़के कानों में टकरा रही थी। आवारा कुर्तों की दुहरी-तिहरी आवाज निशा-शेष के ताज़ा-दम कंठों की किसानी ललकारों में जाने कहाँ खो गई थी !
भोला की तबीयत होती थी कि खलिहान के अंदर जाकर ज़रा देर आग सेंकता चले, लेकिन खुरखुन की चुप्पा मस्ती उसकी इस इच्छा पर अंत तक ब्रेक कसे रही।
और अब चार ही कदम तो आगे आना था।
गोंढ़ियारी। अपना गाँव।

आहट पाते ही गोला कूकुर अगवानी में निकल आया।
हल्की-मीठी गुर्राहट। स्वागत की सनातन अभिव्यक्ति।
धनुष की तरह झुकी एक बुढ़िया बाहर निकल आई।
मछलियोंवालें खाँचे अंदर बैठके में रखता हुआ खुरखुन बोला-मंइञा, नींद नहीं आती तुमको ?
बुढ़िया को सूझता था कम। पूछा-भोलवा नहीं आया रे ? खुरखुन !
भोला ने नजदीक आकर दादी के कंधे पर हाथ रखा-मंइञा !
दादी ने पोते का हाथ-कपार छूकर देखा-हेमाल हो रहा है तेरा बदन ! चल, बोरसी लाती हूँ। सेंक ले हाथ-पैर !
खुरखुन ने खींसें निपोड़ते हुए कहा- मंइञा, अगर तुम चाय पिया दो....
धत् तेरी !- भोला बोला-खुरखुन, पागल तो नहीं हो गए हो ?

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