लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
वे लोग गर्भपात आखिर क्यों कराते हैं? कन्या-शिशु को क्यों ज़िन्दा नहीं रहने देते, औरतें कहती हैं-'हम क्यों उन्हें ज़िन्दा रहने दें? हम बेटियाँ नहीं चाहतीं। हम बेटी क्यों पैदा करें? तकलीफ पाने के लिए?' उन लोगों का कहना है, 'बेटियों को ज़िन्दा रख कर हमें आखिर क्या फ़ायदा होता है? दुःसह जीवन शुरू करने से पहले इनका मर जाना बेहतर है। दुनिया के लोगों के मुक्के-लात खाकर ज़िन्दा रहने से बेहतर है, सीधे स्वर्ग सिधार जाना।'
वे औरतें गलत क्या कहती हैं?
पंजाब, हरियाणा में इन दिनों 'बैकलैश' शुरू हो गया है। पाँच-पाँच भाइयों की एक बीवी! बीवी आखिर मिले कहाँ से? गाँव में कोई लड़की ही नहीं है। बड़े भाई की बीवी को ही, बाकी भाई इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा और कोई उपाय नहीं है, जिसे कहते हैं, 'द्रौपदी सिन्ड्रोम'। त्रिपाला कुमारी नामक झारखण्ड की एक जनजाति महिला को एक शख्स नौकरी देने का लालच दिखाकर हरियाणा ले गया। वहाँ अजमेर सिंह नामक एक शख्स ने उससे विवाह कर लिया और बाद में अपने भाइयों के साथ सोने का हुक्म दिया। वह औरत राज़ी नहीं हुई इसलिए उसे मार डाला गया।
गुजरात के पटेल वंश में अब कोई लड़की ही नहीं बची। अब, बिहार और उडीसा से गरीब लडकियाँ खरीद-खरीदकर यहाँ लायी जा रही हैं। ल सेक्स-दासी व पुत्र पैदा करने की मशीन के तौर पर बेची जा रही हैं।
कन्याओं की हत्या करते-करते अब यह स्थिति आ पहुँची है कि कन्याओं का जबर्दस्त अभाव हो गया है। अब ‘साता पद्धति' नामक एक विनिमय-नियम चाल किया गया है-मैं अपनी बेटी का ब्याह तुम्हारे बेटे से इस शर्त पर करूँगा कि बदले में बेटे की बहन चाहिए ताकि मेरा बेटा उससे विवाह कर सके।
अब तो 'न्यू रिप्रोडक्टिव' तकनीक आ पहुँची है। इन दिनों सभी जगह कन्या-भ्रूण-हत्या एक अपराध है। भगवान के निजी देश' केरल में भी। औरतें कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। न राष्ट्र में, न समाज में, न परिवार में-कहीं भी नहीं। पहले सोचते थे, माँ का गर्भ ही सर्वाधिक सुरक्षित है। लेकिन अब माँ का गर्भ ही लड़कियों के लिए सबसे असुरक्षित जगह बन गयी है। उनकी कोख में कन्या-शिशु का भ्रूण है, यह ख़बर मिलते ही, उनकी सुरक्षा नष्ट हो जाती है।
भारत का दक्षिण भी अब उत्तर के नक्शे कदम पर चल पड़ा है।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं