लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
किसी-किसी ने कानून दिखाने की भी कोशिश की है। जिन औरतों ने खुद ही अपनी कन्या-सन्तान मार डाली, उन लोगों ने चीख-चीख कर सवाल किया, 'कानून? क़ानून की क्या बात है? जब मैं और एक लड़की पैदा करूँ और मेरा पति मुझे खदेड़ देगा, तो क्या क़ानून मेरी मदद करेगा? कानून क्या मेरा सहायक होगा जब मेरा पति बेटे की उम्मीद में और एक विवाह कर लेगा? कानून क्या समाज की वह दृष्टि बदल सकता है जब मेरा कोई बेटा न होने पर मेरी कोई कद्र नहीं करेगा?'
कन्या-शिशु-हत्या के पुराने तरीके की जगह अब आधुनिक 'सेक्स सिलेक्टिव एबॉर्शन' का तरीका आ पहुंचा है। डीएनए टेस्ट, प्री-जेनेटिक डायग्नोसिस, और भी कई-कई हाई-टेक! भई, कन्या-वर्जित समाज चाहिए। चाहिए ही चाहिए। समाज तो कन्या-सन्तान को सम्मान देने के लिए तैयार ही नहीं है। लेकिन क़ानून कहता है कन्या-सन्तान की हत्या नहीं की जा सकती। इधर औरतें हैं कि वजह पर वजह दिये जा रही हैं कि वे लोग कन्या-सन्तान की हत्या आखिर क्यों न करें। वजह है-समाज बेटा चाहता है, परिवार भी बेटा चाहता है। अगर बेटा पैदा न किया तो जिन्दगी में कलह होने लगती है। सीधी-सच्ची बात यह है कि समाज जो समझा देता है, जो बात इन्सान के दिल में है। जुबान से भले कुछ भी कहें मगर सच यही है कि तुम्हें अगर दो बेटे हैं, तो समझो तुम्हारी दो आँखें हैं। अगर एक ही बेटा है तो जान लो तुम एक आँख से अंधी हो। अगर तुम्हारी दो-दो बेटियाँ हैं तब तो तुम पूरी तरह अंधी हो। कानून तोड़े जा रहे हैं। सभी लोग क़ानून तोड़ रहे हैं। डॉक्टर, नर्स. दाई. लैबोरेटरी. अस्पताल, हर कोई, हर जगह। सन 94 में लिंग-जाँच. सरकारी तौर पर निषिद्ध किये जाने के बावजूद किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा। क़ानून का प्रयोग मुश्किल हो आता है, जब इन्सान की मानसिकता नहीं बदलती। लेकिन मानसिकता भी बदलने से रही, अगर कानून न बनाये जायें। लेकिन क्या कोई मानसिकता, नारी-विरोधी मानसिकता को साथ ले कर जन्म लेती है? नहीं, ऐसा नहीं है, यह मानसिकता तैयार की गयी है।
समाज में अपराध जब बढ़ने लगता है, तो औरत का मोलह हराकर कम होने लगता है। ये स्कैन-मशीनें कभी जीव-हत्या के हथियार बन जायेंगी, यह कौन जानता था? पंजाब, हरियाणा में आजकल कन्या-शिशु हत्या दुबारा लौट आयी है, चूंकि कन्या-शिशु-हत्या दिनोंदिन कठिन हो उठी है। एक तो यह गैरकानूनी है, ऊपर से एन जी ओ वर्ग अपराधी पकड़ने के लिए घात लगाये रहते हैं। जिन गाँवों में कन्या-शिशु की संख्या कम है, उन गाँवों में नर्स या दाई का होना ही भयंकर बात है। यह समझ लेना होगा कि जीवन के दूत ही दरअसल मृत्यु-दूत हैं।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं