लोगों की राय

लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

150 पाठक हैं

औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


मैंने तरुण को समझाया, 'यह जो तुम दो लाख रुपये खर्च करके दहेज दे रहे हो, इससे तो बेहतर है कि ये रुपये तुम अपनी बहन की पढ़ाई-लिखाई पर खर्च करो। अभी वह उच्च माध्यमिक में पढ़ रही है न! अभी क्या उसके विवाह की उम्र है? बहन को वकील बनाओ। उसके बाद तो दहेज की ज़रूरत नहीं पड़ेगी न? और जिस घर में अपनी बहन को भेज रहे हो, वहाँ उसका परनिर्भर जीवन कैसा होगा, यह उसे नहीं मालूम ! मुमकिन है वह अत्याचार करे, हर रात उसे मारे-पीटे, मुमकिन है, उसे निकाल बाहर करे, तब? परनिर्भर लड़की को फिर अपने पीहर लौट आना पड़ेगा। वहाँ भी वह परनिर्भर ही होगी। उठते-बैठते उसे ताने-व्यंग्य सहने होंगे। उसके दुर्भोग की सीमा नहीं रहेगी। इससे कहीं अच्छा है कि वह लड़की पढ़े-लिखे, अपने पैरों पर खड़ी हो जाये। उसके बाद उसे किसी के आसरे-भरोसे नहीं बैठना होगा। वह शान से सिर उठाकर जी सकेगी।

तरुण इस बार पहले से भी ज़्यादा ज़ोर से हँस पड़ा मानो ऐसी ज्ञानहीन इन्सान, उसने अपनी ज़िन्दगी में नहीं देखी। उसकी यह धारणा बन गयी कि मुझमें वास्तव में बद्धि बिलकल नहीं है।

'तुम्हारी बहन क्या अब पढ़ाई-लिखाई छोड़ देगी? आगे नहीं पढ़ेगी?'

'जी, यह तो उसके ससुरालवालों की इच्छा पर निर्भर करता है। वे लोग अगर चाहेंगे कि उसकी पढ़ाई-लिखाई जारी रखेंगे, अगर नहीं चाहेंगे, तो रोक देंगे।

'तुम्हारी बहन की इच्छा का कोई मोल नहीं है?'

तरुण फिर हँस पड़ा।

उसने हँसते-हँसते ही कहा, 'यह कैसी बात? अरे, वह तो लड़की है।'

काफ़ी देर तक खामोशी या स्तब्धता के बाद मैंने कहा, 'तो क्या वह लड़की पति और ससुराल की सम्पत्ति बन जायेगी?'

तरुण ने फिर एक बार हँसकर जवाब दिया, 'जी हाँ, बेशक! नियम ही ऐसा है।'

मैं समाज के नीति-नियमों के बारे में कुछ नहीं जानती, इस बारे में तरुण को पक्का विश्वास हो गया। उसे मुझ पर ज़रा तरस ही आया।

अब कुछ दिनों बाद तरुण की बहन किसी की बीवी, किसी की भाभी, किसी की चाची, किसी की मामी बनकर ज़िन्दगी शुरू कर देगी। उसकी ज़िन्दगी, किसी और ज़िन्दगी में विलीन हो जायेगी। उसका अस्तित्व भी किसी और अस्तित्व में गुम हो जायेगा। इसी तरह तरुण की बहन की तरह ही जाने कितनी लड़कियाँ निःशेष हो रही हैं; अपना कोई परिचय रचने के बजाय, पुरुषतन्त्र की आग में आत्माहुति दे रही हैं। अपनी समूची सम्भावनाओं को धू-धू करती आग में फूंककर किसी दूसरे की शरण में, दूसरे की कृपा पर, दूसरे की भीख पर, ये लड़कियाँ जीती रहती हैं। यूँ जीते रहने को मैं भला और कुछ भी कहूँ, इसे जीना हरगिज़ नहीं कह सकती।


...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book