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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


कोई समाज किस हद तक उन्नत है, यह उस समाज की औरतें कितनी उन्नत हैं, इस बात पर निर्भर करता है। मैं इसी हक़ीकत पर विश्वास करती हूँ। समूची जनसंख्या का अर्धांश ही औरत है। ये अर्द्धसंख्यक औरत अगर अशिक्षित और परनिर्भर रह जाये, अगर निर्यातन और अत्याचार का शिकार होती रहे, अगर इस विपुल संख्या की मेधा, बुद्धि, शक्ति, क्षमता, समाज के कोई काम न आये तो वह समाज तो पिछड़ा रहेगा ही। औरत अगर पिछड़ी रहे तो प्रगति भी पिछड़ी रहती है। औरत अगर पीछे रह जाये तो सच्चाई कहीं पीछे रह जाती है।

भारत का आर्थिक उन्नयन निस्सन्देह आसमान छू रहा है। लेकिन इसकी तुलना में औरत का सर्वतोमुखी उन्नयन, लगभग पाताल में फँसा हुआ है। इस देश में नारी-अधिकार, मानवाधिकार और समानाधिकार के लिए अलग से कोई दीवानी कानून व्यवस्था, धर्ममुक्त, संस्कारमुक्त, स्वस्थ जीवन की माँग करते हुए संघर्ष करने के लिए कोई शक्तिशाली आन्दोलन नहीं है। आर्थिक विकास आखिर कैसे होगा अगर आधी जनसंख्या ही अपने अधिकारों से वंचित हो? ऐसा किसी विकास का भ्रम भी हो तो वह सच्चा विकास नहीं होगा और ऐसे विकास पर गर्व भी नहीं किया जा सकता। सऊदी अरब और स्वीडन, दोनों ही धनी देश हैं। लेकिन इनमें जो फ़र्क है वह भयावह है। गणतन्त्र, वाक्-स्वाधीनता, मानवाधिकार के मामलों में स्वीडन को अगर 100 नम्बर दिये जायें, तो सऊदी अरब को 0 मिलेगा। एक सभ्य देश और दूसरा निश्चित रूप से असभ्य देश है।

'स्वाधीनता' कोई आगे बढ़ कर औरत के हाथ में नहीं रखनेवाला कि 'लो, यह रही स्वाधीनता।' औरत को लड़ कर, खुद अपनी स्वाधीनता हासिल करना होगी। औरत खुद इस बात से अनभिज्ञ है कि वे लोग कहाँ-कहाँ से, किस हद तक वंचित हैं और कैसे वंचित हैं। सदी-दर-सदी से औरत के दिमाग़ में यह बात लूंस-ठूस कर भर दी गयी है कि वे लोग दासी हैं, बांदियों की जात! औरत आखिर कैसे मुक्ति पाये? इसके बावजूद मैं कान लगाये रहती हूँ। लम्बे अर्से से...कई वर्षों से मैं उस आहट को सुनने के लिए कान लगाये बैठी हूँ जब सदियों से सोती हुई औरत जाग उठेगी। मैं उसके जागने के इन्तज़ार में हूँ।



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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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