लोगों की राय

ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी

विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

364 पाठक हैं

वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

:१२:
राजा न सँभले-मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की। पागलपन और शरीर की अन्य बीमारियों के बीच में कभी-कभी कुछ चेत हो आता था। अवस्था इतनी खराब हो गई थी कि शायद आगा हैदर के सिवाय और किसी को उसकी चिंता न रह गई थी। सब बेचैन थे, व्यग्र थे उग्र चिंता में कि आगे क्या होगा?
जिस समय जनार्दन ने राजा को कालपी की चिट्ठी का सारांश सुनाया, सब उपस्थित लोगों को तरह-तरह की फूहड़ गालियाँ देकर अंत में आज्ञा दी कि कालपी पर चढ़ाई करने की तैयारी कर दो।


बात-बात पर सिर काटने और कटवाने की योजनावाले लोचनसिंह को भी इस आज्ञा का पालन करने में कठिनाई अनुभव हुई।

जनार्दन जानता था कि अलीमर्दान शीघ्र चढ़ाई न करेगा। दिल्ली षड्यंत्रों के भंवर में पड़ी थी। दिल्ली के प्रत्येक गुट की दृष्टि अपने प्रत्येक सहायक की सत्वर सहायता पर लगी थी। अलीमर्दान अपने भाग्य का अधिकांश भाग वहाँ के एक गुट से संबद्ध समझता था। दलीपनगर भी उस गुट का शत्रु न था। परंतु किसी भी गुट का इतना आतंक दलीपनगर पर न था कि अलीमर्दान के सामने दाँतों-तले तिनका दबाता।

इसलिए जनार्दन ने सेना को धीरे-धीरे तैयार कर डालना ठीक समझा। बड़े पैमाने पर सेना रखना उस समय की मांग थी। शायद इस तैयारी से अलीमर्दान सहम जाए और यदि इससे न भी माना तो डटकर लड़ाई लड़ ली जाएगी। परंतु कालपी पर आक्रमण करना जनार्दन का ध्येय न था और न उसकी व्यवहार-मलकराजनीति में इस प्रकार के विचार के लिए स्थान था। वज्रमष्टि की नीति में विश्वास रखनेवाले लोचनसिंह की सनक राजा की मनोवृत्ति पर निर्भर थी।


वास्तव में इसी का जनार्दन को बहुत खटका था। राजा कालपी पर चढ़ाई करने की आज्ञा दे चुके थे। जनार्दन दलीपनगर को इस तरह की मुठभेड़ से बचाना चाहता था। सेना की धीमी तैयारी से इस मुठभेड़ का कछ समय तक बरकाव हो सकता था। जनार्दन को एक और बड़ी आशा थी-राजा का शीघ्र मरण। और, और जो कुछ उसके मन में रहा हो, उसे कोई नहीं जानता था।

परंतु वह इस विचार पर अवश्य पहुँच चुका था कि राजा के मरते ही दलीपनगर पर आनेवाले तूफान का सहज ही निवारण कर लिया जा सकेगा।
जनार्दन ने राजा की एक दिन बहुत भयानक अवस्था देखकर और दोनों रानियों के बुलावों को टालने के बाद आगा हैदर के घर जाकर मंत्रणा की।
कहा, 'आज सवेरे राजा को जरा चेत था। स्थिति की भयंकरता देखकर, जी कड़ा करके मैंने राजा से स्पष्ट कहा कि किसी को गोद ले लिया जाए। आश्चर्य है, वह इस बात पर नाराज नहीं हुए। केवल यह कहा कि अभी मैं नहीं मरूँगा, जिऊँगा। फिर मैं ज्यादा कुछ न कह सका।'


"हकीम बोला, 'अब उनके जीवन में बहुत थोड़े दिन रह गए हैं। बहुत कोशिश की, मगर यमराज का मुकाबला नहीं कर सकता। राजा की बदपरहेजी पर मेरा कोई काबू नहीं। यदि कमबख्त रामदयाल मर जाए, तो शायद अब भी राजा बच जाएँ। उनकी न मुमकिन फरमाइशों को पूरा करने के लिए वह सदा कमर कसे खड़ा रहता है। ऐसा बदकार है कि कुछ ठिकाना नहीं।'

'यदि मरवा डाला जाए?' 'यह आप जानें। मैं क्या कहूँ?'
'हकीमजी, बदन में फोड़ा होने पर आप उसे पालेंगे या काटकर साफ कर देंगे?' _ 'मैं यदि जर्राह होऊँगा, तो साफ करके ही चैन लूंगा। मगर मैं हकीम हैं, जर्राह नहीं।'
'खैर, जिसका जो काम होता है, वह उसे करता है। न्यायाधीश शूली की आज्ञा देता है, परंतु शूली पर चढ़ाते हैं अपराधी को चांडाल।' .
'मूजी है और उसने पाप भी बहुत किए हैं। आपके धर्म के अनुसार उसे जो दंड दिया जा सकता हो, दीजिए।'


'परंतु हकीमजी, यह आपने बड़ी टेढ़ी बात कही। रामदयाल का असल में दोष ही क्या है? मालिक ने जो हुक्म दिया, उसे सेवक ने पूरा कर दिया। धर्म-विधि से तो राजा का ही दोष है।'

'राजा करे सो न्याव, पाँसा पड़े सो दाँव।' 'परंतु अब राजा के अधिक जीवित रहने से न केवल उनका कष्ट बढ़ रहा है, प्रत्युत् यह राज्य भी आफत की गहरी खाई की ओर अग्रसर हो रहा है।'
'जो होनी है, उसे कोई नहीं रोक सकता।'
हकीमजी।' जनार्दन ने साधारण निश्चय के साथ यकायक कहा, 'या तो राजा का रोग समाप्त होना चाहिए या उन्हें शीघ्र स्वर्ग मिलना चाहिए।'
'दोनों बातें परमात्मा के हाथ में हैं।' हकीम ने निराशापूर्ण स्वर में कहा।


जनार्दन बोला, 'नहीं, आपके हाथ में हैं।' 'यानी' 'यानी यह कि आप ऐसी दवा दीजिए कि या तो उनका रोग शीघ्र दूर हो जाए या उनका कष्टपीड़ित जीवन समाप्त हो जाए।'

आगा हैदर सन्नाटे में आ गया। बोला, 'शर्माजी, अपने मालिक के साथ यह नमकहरामी मुझसे न होगी, चाहे आप उनके साथ मुझे भी मरवा डालिए।' अब की बार जनार्दन की बारी सन्नाटे में पड़ने की आई।


जरा रुखाई के साथ बोला, 'अभी-अभी बेचारे रामदयाल के खत्म होने का समर्थन तो कर रहे थे, परंतु जिसके अत्याचारों के कारण बेचारी प्रतिष्ठित प्रजा बिलबिला रही है, जिसकी नादानी की वजह से कालपी का फौजदार इस निस्सहाय जनपद को सर्वनाश के समुद्र में डुबोने के लिए आ रहा है, जिसकी वज्र-कामुकता के मारे असंख्य भोलीभाली, सती स्त्रियाँ मैंह पर कालिख पोतकर संसार में मक्खियाँ उड़ाती फिर रही हैं, जिसका ...'

'बस-बस, माफ कीजिए।' हकीम बोला, 'आपको जो करना हो, कीजिए, मैं दखल नहीं देता। चाहे किसी को राजा-रानी बनाइए, मुझसे कोई वास्ता नहीं। परंतु अपने ईमान के खिलाफ मैं कुछ न कर सकूँगा।'


बिना किसी व्याकुलता के जनार्दन ने बड़ी अनुनय के साथ प्रस्ताव किया, 'हकीमजी, मैं हाथ जोड़ता हूँ, कुछ तो इस राज्य के लिए करो, जिसके अन्न-जल से हमारे और

आपके हाड़-मांस बने हैं।'
'क्या करूँ?' हकीम ने अन्यमनस्क होकर पूछा।
जनार्दन ने उत्तर दिया. 'सैयद अलीमर्दान को मना लो। दलीपनगर को बचा लो।

सुना है उसकी फौज कालपी से शीघ्र कूच करनेवाली है। यदि आप उसे बिलकुल न रोक सकें, तो कम-से-कम कुछ दिनों तक अटका लें, तब तक मैं राजा द्वारा किसी उत्तराधिकारी को नियुक्त कराके राज्य को सुव्यवस्थित करा लूंगा। यदि राजा बच गए, तो उत्तराधिकारी की देख-रेख में राज-काज ठीक तौर से होता रहेगा; न बचे, तो जो राजा होगा, सँभाल कर लेगा। इस समय सबके मन किसी अनिश्चित, अंधकारावृत, अदृश्य, घोर विपत्ति के आ टूटने की संभावना के डर से थर्रा रहे हैं मानो मनुष्य में कोई शक्ति ही न हो। सामने सहायक देखकर ये ही भयकातर लोग प्रबल हो उठेंगे और यह राज्य विपत्ति से बच जाएगा।'


इस अनुनय की प्रबलता ने हकीम को कुछ सोचने पर विवश किया।

जनार्दन निस्संकोच कहता चला गया, 'यदि प्रजा अपने आप कुछ कर सकती होती, तो हमें और आपको इतना ऊँच-नीच न सोचना पड़ता। उसका सशक्त या अशक्त होना अच्छे-बुरे राजा पर निर्भर है। देखिए, छोटे राज्यों के अच्छे नरेशों के आश्रय में प्रजा कैसे-कैसे भयानक आक्रमणकारियों का प्रतिरोध करती है और बड़े राज्यों के बुरे नरपतियों की मौजूदगी कराल विष का काम करती है।'


हकीम सोचकर बोला, 'मैं कालपी तुरंत जाने को तैयार हूँ, परंतु राजा के इलाज का क्या होगा?'

'किसी अच्छे वैद्य या हकीम को नियुक्त कर जाइए।' उत्तर मिला।
हकीम ने कहा, 'मैं अपने लड़के के हाथ में राजा का इलाज छोड़ जाऊँगा, और किसी हाथ में नहीं।'


'इसमें कोई खलल न डालेगा।' जनार्दन ने कहा, 'और मैंने अत्यंत विह्वलता के कारण जो दारुण प्रस्ताव आपके सामने उपस्थित किया था, उसे भूल जाइएगा। अवस्था इतनी भयानक हो गई है कि मेरा तो दिमाग ही खराब हो गया है।' _ 'खैर। हकीम बोला, 'इसका आप कोई खयाल न करें। मैं अलीमर्दान को तो मनाने की कोशिश करूँगा ही, किंतु दिल्ली के भी किसी गुट को हाथ में लेकर अलीमर्दान को सीधा कर लूंगा। इस समय दिल्ली की सल्तनत में एक और की बहुत चल रही है।

शायद उसकी मार्फत अलीमर्दान को काफी समय के लिए दिल्ली बुलवा सकूँ।'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai