लोगों की राय

पौराणिक >> लोपामुद्रा

लोपामुद्रा

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :298
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7203
आईएसबीएन :81-267-0764-x

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

33 पाठक हैं

ऋषि विश्वामित्र के जन्म और बाल्यकाल का वर्णन...

Lopamudra - A Hindi Book - by Kanhaiyalal Maniklal Munshi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘आर्यावर्त की महागाथा’ के नाम से मुंशीजी ने तीन खण्डों में वैदिककालीन आर्य संस्कृति के धुँधले इतिहास को सुस्पष्ट करके उपस्थित किया है। इसमें वैदिक सभ्यता और संस्कृति का बहुत ही सुन्दर और अधिकृत चित्रण है। यह पुस्तक उसका पहला खण्ड है।

इस पुस्तक में ऋषि विश्वामित्र के जन्म और बाल्यकाल का वर्णन है। उनका अगस्त्य ऋषि के पास विद्याध्ययन, दस्युराज शम्बर द्वारा अपहरण, शम्बर-कन्या उग्रा से प्रेम-सम्बन्ध और इसके परिणामस्वरूप आर्य-मात्र में विचार-संघर्ष, ऋषि लोपामुद्रा का आशीर्वाद और अन्त में उनका राज्य-त्याग–इन सब घटनाओं को विद्वान् लेखक ने अपनी विलक्षण प्रतिभा और कमनीय कल्पना के योग से अनुप्राणित किया है। मुंशीजी की अन्य सभी कृतियों की तरह यह पुस्तक भी अद्भुत एवं अतीव रसमय है।

आमुख


ऋग्वेद का जीवन नया है। उसमें इतिहास के उषाकाल की हलचल और तेजस्विता है। इस इतिहास की तुलना में पौराणिक कथाएँ नीरस लगती हैं। प्रायः ऐसा होता है कि पौराणिक साहित्य से बना हुआ हमारा मन इस जीवन की कल्पना तक नहीं कर पाता। बाद के संस्कृत-साहित्य पर निर्मित हमारी वाणी उसके साथ पूरा-पूरा न्याय नहीं कर पाती। इस काल का मानव-स्वभाव समझना भी कभी-कभी मुश्किल हो जाता है।

ऋग्वेद संहिता के दस मंडल हैं; प्रत्येक मंडल में अनेक सूक्त हैं, और हर सूक्त से अनेक मंत्र। इन सबकी भाषा महर्षि पाणिनि की संस्कृत में अनेक शताब्दियों पूर्व बोली जानेवाली भाषा है। इसके चार-पाँच मंडलों की रचना तो पीछे से हुई, पर बाकी के मंडलों के सूक्त अत्यंत पुराने काल के हैं। उनमें भारत के इतिहास की प्राचीन-से-प्राचीन घटनाओं का समकालीन उल्लेख पाया जाता है।

जब ये घटनाएँ घटित हुईं, तब आर्य लोग पाँच जातियों–पंच जना–में विभक्त हो गए थे। ये जातियाँ सप्तसिंधु में रहती थीं। सप्तसिंधु, सरस्वती, दृषद्वती, शतद्रु, परुष्णी, असिक्री और वितस्ता–इन सात नदियों से मिलकर बने हुए पंजाब प्रदेश को सप्तसिंधु कहते थे। आर्य अब तक जमुना के किनारे तक न पहुँचे थे। इनकी भाषा में अब भी जंगली अवस्था के संस्कार मौजूद थे। इनके हथियारों में लकड़ी के बने हुए दंड, और पत्थर और हड्डियों के बने वज्र शामिल थे। त्वष्टा, पर्जन्य और द्यावा पृथिवी–जैसे प्राचीन देवताओं का मान घट गया था। आकाश के देव वरुण भी, जो सत्य-असत्य की परख करते और लोगों के हृदयों में प्रेरणा करते थे, युद्ध के देव इंद्र की तरह सबको प्रिय नहीं हुए थे। अग्नि, सूर्य और सोम लोकप्रिय देवता थे।

ये आर्यजन कई हिस्सों में बँट गए थे। इन्हें ‘विश्’ कहते थे। विश् भिन्न-भिन्न ग्रामों में रहते थे। ग्रामों में जिनकी गौएँ एक साथ एक ठिकाने बँधती थीं, वे एक गोत्र के माने जाते थे। गोत्र पृथक-पृथक कुलों से बनते थे। प्रत्येक ग्राम का सारा प्रबंध उसका मुखिया ग्रामीण किया करता था। कभी-कभी ग्राम-के-ग्राम अपने बाल-बच्चे, गौएँ, घोड़े और बकरे लेकर चारे की तलाश में एक से दूसरे ठिकाने चले जाते थे। गाँव स्वावलंबी समुदाय होता था। जौ, चावल, तिल मूँगफली–यही उन लोगों का सामान्य आहार था। वे घी-दूध भर-पेट खाते थे। मांस भी खाया जाता था, और गाय का भी। वे कपास और ऊन के कपड़े बनाकर पहनते थे। मृगचर्म भी पहनने-ओढ़ने के काम में लाया जाता था। चमड़े की मशक पानी भरने के काम में आती थी। गौएँ आर्यों को बहुत ही प्रिय थीं। सिक्कों के बदले लेन-देन में उनका व्यवहार होता था। दान और पुरस्कार में गौएँ दी जाती थीं। पीछे से गौ को जो पवित्रता मिली, वह उस समय तक नहीं दी गई थी।

आर्य गौरवर्ण ऊँचे कद के और सुंदर-नयन थे। वर्ण-व्यवस्था उनमें नहीं थी। स्त्री या राजा भी ऋषि हो सकते थे। ऋषि युद्धक्षेत्र में उतरकर हजारों को संहार कर सकता था। राज्यपद या ऋषिपद जन्म से नहीं, कर्म से मिलता था। स्त्रियाँ पढ़ती थीं और कोई-कोई तो ऋषि भी बनती थीं। वे युद्धक्षेत्र में भी जाती थीं। युवक-युवतियाँ अपने हाव-भावों से एक-दूसरे को अपनी ओर आकर्षित करते थे। ऋषि रूपवती स्त्रियों के आकर्षण के लिए मंत्रों की रचना करते थे। प्रत्येक स्त्री को विवाह करने की आवश्यकता न थी। कुमारी से उत्पन्न बच्चे अधम, पतित नहीं समझे जाते थे।

आर्य बढ़ई, लोहार, वैद्य, सुनार, कुम्हार, चमार और जुलाहे का धंधा करते थे। वे खेती भी करते थे। कुछ लोग कविता भी करते थे। पणि नौकाओं में बैठकर परदेस को जाते और व्यापार करते थे। लोगों की गौएँ चोरी चली जाती थीं। आर्य भेड़ियों की तरह लोभी थे। ब्याज का धंधा करते और इसलिए ऋषि उन्हें तिरस्करणीय दृष्टि से देखते थे। व्यापार के लिए घोड़ों, ऊँटों, कुत्तों और बैलों की पीठ पर बोरे लादकर एक जगह से दूसरी जगह जाते थे। गधों की भी कद्र थी।

आर्य लोग दस्युओं और दासों से बहुत सताए जाते थे। उन्हें अनेक बाधाओं और संकटों का सामना करना पड़ता था, अतः दास उनसे बहुत द्वेष करते थे। दास लोग कृष्ण वर्ण, चपटी नाक के, बलवान और स्वभाव के बड़े दुष्ट होते थे। वे आर्यों की गौओं को चुरा ले जाते, पत्थर से बने पहाड़ी किलों में रहते और शिवलिंग की पूजा करते थे। वे लोग यज्ञ नहीं करते थे। आर्यों के देवों का तिरस्कार करते और व्रत-विहीन होते थे। लेकिन दासों का यह वर्णन आर्यों द्वारा किया हुआ है–यह आर्य ऋषियों की गवाही है। परंतु यथार्थ में दस्यु भारतवर्ष के शिवपूजक मूल निवासी थे। मोहन्जोदरो, जिसके खंडहर आज सिंध में मिले हैं, इन दस्युओं का मुख्य नगर था। दस्युओं के राजा शंबर के पास पत्थरों के बने सुदृढ़ सौ दुर्ग थे, और अब तक जितने प्रमाण मिले हैं, उनसे यह सिद्ध होता है कि यह एक सुसंस्कृत उन्नत जाति थी। परंतु अंत में, उन्हें आर्यों ने परास्त किया और वे दास बने। कुछ वर्षों में दस्यु आर्य बन गए। इनके इष्टदेव शिवलिंग, उग्रदेव का नाम धारण कर आर्यों के मुख्य उपास्य बने। ऋग्वेद के ब्राह्मणों में इसका उल्लेख है। वही उग्रदेव शंकर-स्वरूप आज आर्य धर्म में भक्ति भाव से पूजे जाते हैं। मैंने इसीलिए इस लिंग को उग्र-काल का नाम दिया है।

आर्यों के राजन्य और मघवन-अर्थात् पैसे वाले लोग-शानदार लकड़ी के बने महलों में रहते थे। लोहे के किले भी होते थे। किसी-किसी किले की तो सौ-सौ दीवारें होती थीं, ऐसा उल्लेख है। साधारण घर मिट्टी के बने होते थे। गौओं और बकरों को रखने के लिए खिरक होते थे। आर्य नौकर, अर्थात् दास भी रखते थे। वे बढ़िया-से-बढ़िया कपड़े पहनते और सुंदर लंबे बाल सँवारते थे। युद्ध में वे बख्तर पहनते और हथियार काम में लाते। घुड़दौड़ की बाजी का उन्हें काफी शौक था। वे जुआ भी खूब खेलते थे। ऋषि ‘सोमरस’ पीकर और इतर सर्वसाधारण सुरा पीकर नशा करते थे। लोग कभी-कभी सभाओं में मिलते थे। ऋषि आश्रमों में रहते और निःशुल्क विद्यादान करते थे।

वर्णाश्रम-रहित समाज, थोड़े से गौरवर्ण आर्य, देश-भर में फैले हुए काले रंग के दस्यु, झोंपड़ियों या मिट्टी के घरों में रहना, सिक्कों के बदले गौओं का चलन, विवाह की शिथिलता, प्रायः संपूर्ण स्त्री समानता, आहार-विहार की पूरी स्वतंत्रता, राजा दिवोदास–जैसे महान् राजा का भी अतिथियों को गौमांस परोसकर अतिथिग्व की उपाधि प्राप्त करना–यह सारा चित्र हमारी दृष्टि के आगे घूमने लगता है। ऋषि चपटी नाकवाले काले कलूटे दास-दासियों से भीख माँगते और भेंट लेते, ‘सोमरस’ पीकर नशे में चूर रहते, लोभ और क्रोध का प्रदर्शन करते और गौएँ देनेवाले की प्रशंसा करते थे। वे कभी-कभी द्वेष से भड़ककर आग-बबूला हो जाते और एक-दूसरे पर देवों का क्रोध उतारने का प्रयत्न करते। कई ऋषियों के पिताओं तक का पता न था, लेकिन उनमें आदर्शवादिता, देश-भक्ति, सत्य और तप की तीव्र अभिलाषा थी, कभी-कभी प्रत्यक्ष रूप से देवों के साथ वार्तालाप का अभ्यास। आर्यत्व के जीवंत इन विश्वकर्माओं को समझना बड़ा ही कठिन काम है। इनके संबंध में पुराणों में वर्णित ऋषियों का खयाल हमें भुला देना चाहिए।

तत्कालीन भाषा और भाव में भी कुछ आश्चर्यजनक अंतर मालूम पड़ता है। पिछले काल की संस्कृत और आधुनिक हिंदी के शब्दों में अलग-अलग भाव हैं। और मन से रची हुई सृष्टि है। इस शब्दाकोश के उपयोग से ऋग्वेद कालीन मनोदशा और भावों को व्यक्त करने में मैं अपने को असमर्थ पाता हूँ। अतिथिग्व–यह गौमांस खिलानेवाले की बहुमानास्पद उपाधि थी। प्राण या आत्मा का कोई खयाल ही नहीं था। प्राण गया या आत्मा गया, यह तो शब्दकोश ही में नहीं, ईश्वर की कल्पना नहीं, नाम नहीं, उसकी मान्यता नहीं। जन ही जाति था। नाथ–जैसे शब्द के बदले आर्य स्त्रियाँ गर्वश्रेष्ठ–जैसा कोई शब्द कहती हों, तो कोई अचंभे की बात नहीं। स्वदेश की कल्पना नहीं थी। देवता अनेक थे और आर्य लोग जरा-जरा सी बात में देवता को ऐसा पकड़कर बैठ जाते थे, जैसे वह उनका ही कोई सगा-साथी या मित्र हो। वीभत्सता या अश्लीलता का कोई विचार नहीं था।

पुस्तक में भारतवर्ष के इतिहास की सर्वप्रथम प्रामाणिक घटनाएँ अंकित हुई हैं। वे घटनाएँ इस प्रकार है–
तृत्सु जाति के राजा दिवोदास बड़े वीर और उदार थे। उन्होंने पक्थों के साथ युद्ध किया था। दस्युओं के राजा शंबर के साथ भी उन्होंने अनेक बार युद्ध किया और अंत में उन्हें मारकर उनके नब्बे किले छीन लिए। उनका सुदास नामक लड़का था। देवता मैत्रावरुण के दो पुत्र थे–अगस्त्य और विश्वामित्र। वसिष्ठ ने अगस्त्य को तृत्सुओं का परिचय कराया। वसिष्ठ तृत्सुओं के पुरोहित थे।

भरत नाम की प्रतापी जाति में विश्वामित्र ऋषि ने जन्म लिया था। यह कुशिक के वंशज और गाथीनों की दिव्य विद्या के अधिकारी थे। इनके और वसिष्ठ के बीच में वैर-भाव बढ़ा। विश्वामित्र तृत्सुओं के पुरोहित बने। जमदग्नि ऋषि भी उनके मित्र थे। विश्वामित्र ने गायत्री मंत्र की रचना की। इनके संबंध में बहुत-सी पुराण-कल्पित बातें मैने ली हैं। विश्वामित्र के पिता गाधि थे; उन्होंने अपनी कन्या सत्यवती, भृगु ऋचीक को ब्याह दी थी। देवता की कृपा से एक ही समय में गाधि के विश्वरथ और ऋचीक के जमदग्नि नाम के पुत्र पैदा हुए। विश्वरथ ने राज्य छोड़कर विश्वामित्र नाम रख लिया और ऋषि बन गए।
ऋग्वेद के प्रमाणानुसार लोपामुद्रा ऋषि थी। उसने अगस्त्य को ललचाकर अपना पति बनाया। इस प्रसंग के इस देवी के रचे हुए मंत्र ऋग्वेद में हैं।

इस समय आर्यों और दस्युओं के बीच में रंग, धर्म और संस्कृति का भेद, संघर्ष का रूप धारण कर रहा था। शंबर और उसके साथी और दस्यु लोग लिंग की पूजा करते थे। ये लोग शक्ति में, वीरता में, या सुख के साधनों में आर्यों से किसी प्रकार कम नहीं थे। परंतु विद्या और संस्कार में आर्यों से नीचे थे। जब दस्युओं को आर्यजन कैद करते, तब गुलाम बनाकर रखते थे और दास शब्द गुलामों के लिए प्रयोग किया जाने लगा।
एक बार आर्यों के इतिहास में मुख्य प्रश्न यह उपस्थित हुआ कि विजित दस्युओं का क्या किया जाय। यदि उन्हें मार डाला जाए, तो सेवा-चाकरी कौन करेगा ? और जिंदा रखा जाय, तो समाज में उनका क्या पद होगा और दासीपुत्र का कुटुंब में क्या स्थान होगा।

इन प्रश्नों पर भयंकर लड़ाइयाँ हुईं, सिर कटे, विरोध ने उग्रतर रूप धारण किया। कई विद्वान मानते हैं कि वसिष्ठ और विश्वामित्र में जो विरोधभाव बढ़ा, वह इसी समस्या को लेकर। वसिष्ठ रक्त-शुद्धि के प्रतिनिधि थे, तो विश्वामित्र दस्युओं को आर्य बनाने का रसायन तैयार कर रहे थे। आर्यत्व कुछ जन्म से नहीं आता; बल्कि गायत्री मंत्र के जाप से शुद्घ होकर सत्य और ऋतु से प्रेरित हो यज्ञोपवीत को पहनने से उसकी शुद्धि होती है। कोई भी मनुष्य नया जन्म ग्रहण कर सकता है, द्विज बनकर आर्य हो जाता है–यह रीति उन्होंने सिखाई।

इस मंत्र के प्रभाव से इस देश में रंग-भेद मिट गया और संस्कार भेद के प्रमाण से प्रजा के विभाग हुए। विप्र का काम करनेवाले, ब्राह्मण कहलाए। सामान्य प्रजा तो वैश्यों में बँट गई थी, वैश्य कहलाई। जो द्विज नहीं हुए थे, वे शूद्र नाम से संबोधित किए जाने लगे। शतपथ ऐतरेय ब्राह्मणों में इस प्रकार की वर्ण-व्यवस्था दीख पड़ती है; पर कई सदियों पहले की रची हुई संहिता में नहीं।
इस समस्त वस्तु को पृथक-पृथक नाटकों के रूप में लिखने का मेरा बहुत दिनों से विचार था। अब इसका पहला भाग उपन्यास के रूप में लिखा गया है, शेष तीनों भाग नाटक के रूप में प्रस्तुत है

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai