यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
मैं फिर कुछ देर उसके चेहरे की नीली धारियों को देखता रहा। "तुम्हें वहाँ जाते ही नौकरी मिल जाएगी?" मैंने पूछा।
"जब तक नौकरी नहीं मिलेगी तब तक कोई और काम कर लूँगा।" उसने कहा।
"तुम और क्या काम कर सकते हो?"
"बोझ उठा सकता हूँ।"
मेरे होठों पर एक खुश्क-सी मुस्कराहट आ गयी। वह अपनी दुबली-पतली बाँहों से हल्का-सा भी बोझ उठा सकता है, उसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी।
"तुम कितना बोझ उठा सकते हो?" मैंने पूछा।
"जी, बड़ा तो नहीं, मगर छोटा-मोटा सामान तो उठा ही सकता हूँ। मैं उम्र में उतना छोटा नहीं हूँ जितना देखने में लगता हूँ।"
"क्या उम्र है तुम्हारी?"
"सोलह साल।"
"सोलह साल? तुम्हें ठीक पता है तुम्हारी उम्र सोलह साल है?"
लड़के ने गम्भीर भाव से सिर हिलाया। "जी, पार्टीशन से पहले मैं पत्तोकी में पाँचवीं जमात में पढ़ता था।"
और वह बताने लगा कि किस तरह वह पाकिस्तान से बचकर आया था। जब उनके घर पर हमला हुआ, तो उसके माता-पिता ने उसे आटे के ड्रम में छिपा दिया था। उसकी ख़ुशक़िस्मती थी कि हमलावरों ने ड्रम का ढँकना उठाकर नहीं देखा।
वहाँ से बचकर वह किसी तरह एक काफ़िले के साथ जा मिला और हिन्दूस्तान पहुँच गया। तीन साल वह शरणार्थी कैम्पों में रहा। फिर उसे यह नौकरी मिल गयी। वे लोग उसे अपने साथ बीना ले आये। पर उसे वे हर महीने ठीक से तनख़्वाह नहीं देते थे। कभी कह देते कि उसकी तनख़्वाह कपड़ों में कट गयी है, और कभी कि जो चीज़ें उसने तोड़ी हैं, उनकी क़ीमत उसकी तनख़्वाह से कहीं ज्यादा है। कभी कह देते कि उन्होंने उसके नाम से लाटरी डाल दी है, जिसमें हो सकता है उसका एक लाख रुपया निकल आये। नौकरी छोड़ने पर उन्होंने उसका पूरा हिसाब करके उसे कुल चार रुपये दिये थे।
"तुम इससे पहले अपनी मौसी के पास क्यों नहीं चले गये?" मैंने पूछा।
"पहले मुझे उन लोगों का पता नहीं मालूम था," वह बोला। "बीना में एक बार अपने वतन का एक आदमी मिल गया, तो उसने बताया कि वे लोग बम्बई में चेम्बूर कैम्प में हैं। मैंने उन्हें चिट्ठी लिखी कि वे कहें तो मैं उनके पास बम्बई आ जाऊँ। पर तब मौसा ने लिखा था कि मुझे लगी हुई नौकरी छोड़नी नहीं चाहिए। वे मौक़ा देखेंगे, तो अपने-आप मुझे बुला लेंगे।" फिर कुछ रुककर उसने पूछा, "जी, यह टी.टी. मुझे गाड़ी से उतार तो नहीं देगा?"
"नहीं, वह उतारेगा नहीं," मैंने कहा। "अगर उतारना चाहेगा, तो हम उससे बात कर लेंगे।"
"तो मैं ज़रा लेट जाऊँ," वह बोला। "लगता है मुझे बुख़ार हो रहा है।"
मैंने उसके शरीर को छूकर देखा। शरीर सचमुच गरम था। मैं अपनी पहली जगह पर चला गया, और वह वहाँ लेट गया।
गाड़ी होशंगाबाद स्टेशन पर रुकी, तो वह सो रहा था। बाहर देखते हुए मुझे साथ के डिब्बे में अपने एक प्रोफ़ेसर नज़र आ गये। मैं उतरकर उनके पास चला गया। वे कहीं से एक शिक्षा-सम्मेलन का सभापतित्व कर आये थे और अब किसी मीटिंग के सिलसिले में बम्बई जा रहे थे। पहले वे मुझे उस सम्मेलन के विषय में बताते रहे। फिर मुझसे मेरे बारे में पूछने लगे। फिर अपनी हाल की यूरोप-यात्रा का क़िस्सा सुनाने लगे। नतीजा यह हुआ कि गाड़ी चल दी और मैं उन्हीं के डिब्बे में बैठा रह गया।
इटारसी स्टेशन पर लौटकर अपने डिब्बे में आया, तो वहाँ भीड़ पहले से बहुत बढ़ चुकी थी। भीड़ में रास्ता बनाकर अपनी जगह पर पहुँचा, तो देखा कि वह लड़का सामने की सीट पर नहीं है। लोगों से पूछा, तो पता चला कि वह इटारसी तक आ ही नहीं पाया-टिकट इंस्पेक्टर ने उसे होशंगाबाद स्टेशन पर ही उतार दिया था।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान