यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
नया आरम्भ
मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है-कम-से-कम मुझे यह लगता तो है ही-कि बस या ट्रेन में मैं जिस खिड़की के पास बैठता हूँ, धूप उसी खिड़की से होकर आती है। इस दिशा में पहले से सावधानी बरतने का कोई फल नहीं होता क्योंकि सड़क या पटरी का रुख़ कुछ इस तरह से बदल जाता है कि धूप जहाँ पहले होती है, वहाँ से हटकर मेरे ऊपर आने लगती है। फिर भी मुझसे यह नहीं होता कि खिड़की के पास न बैठा करूँ। गति का अनुभव खिड़की के पास बैठकर ही होता है। बीच में बैठकर तो यूँ लगता है जैसे गतिहीन केवल हिचकोले खाये जा रहे हैं...।
भोपाल से मैं अमृतसर एक्सप्रेस में बैठ गया था। कोशिश करके जगह भी बना ली थी। मगर धूप सीधी आकर मेरे चेहरे पर पड़ रही थी। मेरे हाथों में एक पुस्तक थी जिसे मैं बहुत देर से खोले था मगर पढ़ नहीं पा रहा था। कभी दो-एक पंक्तियाँ पढ़ लेता और फिर धूप से बचने के लिए उससे ओट करके खिड़की से बाहर देखने लगता। मेरे सामने की सीट पर बैठा एक लड़का यह देखकर मुस्करा रहा था कि मैं धूप से बचना भी चाहता हूँ और खिड़की के बाहर देखना भी चाहता हूँ। उसने अपनी जगह से थोड़ा सरकते हुए मुझसे कहा, "इधर आ जाइए। इधर धूप नहीं है।"
मैं उठकर उसके पास जा बैठा और खिड़की से बाहर देखने लगा। कुछ देर बाद किसी ने मुझे कन्धे से पकड़कर हिलाया तो मैं चौंक गया। टिकट इंस्पेक्टर टिकट देखने के लिए खड़ा था। मैंने टिकट निकालकर उसे दिखा दिया। टिकट इंस्पेक्टर ने तब साथ बैठे उस लड़के की तरफ हाथ बढ़ाया। लड़के ने जेब से एक बड़ा-सा रूमाल निकाला। उसमें एक टिकट और कुछ आने पैसे थे। टिकट इंस्पेक्टर ने उसका टिकट लेकर ध्यान से देखा और पूछा, "कहाँ से बैठे हो?"
"बीना से," लड़के ने कहा।
"मगर तुम्हारा टिकट तो बीना से भोपाल तक का है।" और उसने बताया कि एक तो भोपाल पीछे रह गया है, दूसरे बीना से भोपाल तक भी उस गाड़ी में थर्ड क्लास में सफर नहीं किया जा सकता। "तुम्हें पता नहीं था कि यह लम्बे सफ़र की गाड़ी है?"
"जी, मैं लम्बे सफ़र के लिए ही इसमें बैठा हूँ।" लड़के ने कहा, "मैं बम्बई जा रहा हूँ।"
लड़के की इस बात से आसपास बैठे सब लोग हँस दिये। इंस्पेक्टर भी हँस दिया। बोला, "फिर तुमने टिकट बम्बई तक का क्यों नहीं लिया?"
लड़के की बड़ी-बड़ी आँखें कुछ सहम गयीं।" जो मेरे पास जितने पैसे थे, उनसे यही टिकट आता था", उसने कहा। इंस्पेक्टर क्षण-भर अनिश्चित दृष्टि से उसे देखता रहा। फिर जैसे उसे भूलकर दूसरों के टिकट देखने लगा।
मैं भी पल-भर ध्यान से लड़के की तरफ देखता रहा। गोरा रंग और दुबला-पतला शरीर। खाल बहुत पतली, क्योंकि चेहरे की हरी नाड़ियाँ बाहर दिखाई दे रही थीं। उम्र ग्यारह-बारह साल से ज़्यादा नहीं लगती थी, हालाँकि वह एक वयस्क की तरह गम्भीर होकर बैठा था। उसकी हैंडलूम की हरी कमीज़ और भूरा पाजामा दोनों ही अब बदरंग हो रहे थे। चेहरे के दुबलेपन को देखते हुए उसकी आँखें और कान बहुत बड़े लगते थे। आँखों के नीचे, जो वैसे सुन्दर थीं, स्याह गड्ढे पड़ रहे थे।
"तुम्हारा घर बम्बई में है?" मैंने उससे पूछा।
"जी, मेरी मौसी वहाँ रहती है," उसने कहा।
"बीना में तुम किसके पास थे?"
वहाँ मैं नौकरी करता था। अब नौकरी छोड़कर मौसी के पास जा रहा हूँ?"
"तुम्हारे माता-पिता...?"
"वे दंगे के दिनों में मारे गये थे।"
मैं पल-भर चुप रहा। फिर मैंने पूछा, "बम्बई में मौसी से मिलने जा रहे हो?"
"जी नहीं। अब मैं वहाँ मौसी के पास ही रहूँगा। मौसी ने मुझे चिट्ठी लिखकर बुलाया है। मेरे मौसा गुज़र गये हैं और पीछे चार-पाँच साल के दो बच्चे हैं। घर में अब कमाने वाला कोई नहीं है। मैं तो यहाँ भी नौकरी करता था, वहाँ भी कर लूँगा। रोटी और पन्द्रह रुपये मिल जाएँगे। अपने लिए तो मुझे रोटी ही चाहिए। रुपये मौसी को दे दिया करूँगा। पास रहूँगा तो बच्चों की देखभाल भी हो जाएगी।"
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- दिशाहीन दिशा
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- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
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- बस-यात्रा की साँझ
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