यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
"मियाँ अब्दुल जब्बार," मैंने सीधे उसकी तरफ़ देखते हुए पूछा, "इन्सान का ख़ून करने को तुम गुनाह नहीं समझते?"
"हुज़ूर, मैं पठान हूँ," मैंने सीधे उसकी तरफ देखते हुए पूछा, "इन्सान का ख़ून करने को तुम गुनाह नहीं समझते?"
"हुज़ूर, मैं पठान हूँ," वह हाथ रोककर बोला। "मेरी निगाह में गुनाह का ताल्लुक़ इन्सान की रूह के साथ है, जान के साथ नहीं। मैं किसी की इज़्ज़त लूटता हूँ, किसी को ज़लील करता हूँ, किसी की चोरी करता हूँ, तो उसकी रूह को सदमा पहुँचाता हूँ। यह गुनाह है। मगर मैं किसी ख़बीस की जान लेता हूँ, तो एक नापाक रूह को जिस्म की क़ैद से आज़ाद करता हूँ। यह गुनाह नहीं है।"
मैं मन-ही-मन मुस्करया और पानी तरफ़ देखने लगा। चप्पुओं से बनती लहरों के साँप लचकते हुए एक-दूसरे में विलीन होते जा रहे थे। मेरी एक उँगली फिर पानी की सतह को छूने लगी।
"तो कम-से-कम तफ़्स के लिहाज़ से अब तुम बिलकुल पाक ज़िन्दगी बिता रहे हो?" मैंने पूछा।
"क़सम खाकर तो नहीं कह सकता हुज़ूर," अब्दुल जब्बार संजीदगी छोड़कर फिर अपनी रसिकता में लौट आया। "यार लोगों की मजलिस में शरकत की दावत हो, तो इन्कार भी नहीं किया जाता। वैसे दमख़म आपकी दुआ से अब भी इतना है कि...।" और जिन मार्के के शब्दों में उसने अपने पुरुषत्व की घोषणा की, उन्हें मैं ज़िन्दगी-भर नहीं भूल सकता।
सर्दी बढ़ रही थी। "तो हुज़ूर अब नाव को किनारे की तरफ ले चलूँ, काफ़ी वक़्त हो गया है," उसने कुछ देर चुप रहने के बाद कहा। हमने अब उससे और कोई चीज़ सुनाने का अनुरोध नहीं किया। नाव धीरे-धीरे किनारे की तरफ़ बढ़ने लगी।
किनारे पर पहुँचकर जब हम चलने को हुए, तो अब्दुल जब्बार ने कहा, "आज शाम को कुछ मछलियाँ पकड़ी हैं। दो-एक सौग़ात के तौर पर लेते जाइए।"
मगर अविनाश वहाँ होटल में खाना खाता था और मैं उसी का मेहमान था, इसलिए मछलियों का हमारे लिए कोई उपयोग नहीं था। हमने उसे धन्यवाद दिया और वहाँ से चले आये।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान