यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
ज्यों-ज्यों शाम गहरी हो रही थी, वेटिंग हाल में भीड़ बढ़ती जा रही थी। भीड़ में ज्यादातर गोआ जानेवाले ईसाई यात्री थे। गोआ में उन दिनों सेंट फ्रांसिस ज़ेवयर्स के मृत शरीर का 'एक्सपोज़ीशन' चल रहा था और देश के विभिन्न भागों से बहुत बड़ी-संख्या में यात्री वहाँ जा रहे थे। टिकटघर की खिड़की खुलने के घंटा-भर पहले से ही लोग वहाँ जमा होने लगे थे। जिस समय मैं वहाँ पहुँचा, वहाँ दो क्यू साथ-साथ बन रहे थे। मैंने एक क्यू में सबसे पीछे खड़े गोआनी सज्जन से पूछा कि मार्मुगाव का टिकट लेने के लिए मुझे किस क्यू में खड़े होना चाहिए। उन्होंने बहुत शिष्टता के साथ मुस्कराकर कहा कि मुझे उनके पीछे खड़े हो जाना चाहिए।
खिड़की खुलने में देर थी। ऐसे मौक़े पर जैसा कि स्वाभाविक होता है, गोआनी सज्जन पीछे की तरफ़ मुँह करके मुझसे बात करने लगे। उन्होंने मेरा नाम-पता और काम पूछा। मैंने भी बदले में उनका नाम पूछ लिया।
"मेरा नाम है फर्नांडिस," उन्होंने कहा, "ए.एल. फर्नांडिस। एल्बर्ट ल्योनार्ड फर्नांडिस।" उन्होंने बताया कि वे वहीं पूना की किसी फ़र्म में एकाउंट्स सुपरवाइज़र हैं।
जल्दी ही मिस्टर फर्नांडिस काफ़ी घनिष्ठता से बात करने लगे। कई बार आदमी अपने परिचितों के साथ उस सहजता से बात नहीं कर पाता जिससे अपरिचितों के साथ करने लगता है। मिस्टर फर्नांडिस आवेश के साथ गोआ के भारत में सम्मिलित होने के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करते रहे। उनका कहना था कि गोआ भारत का ही एक भाग है और उसे अवश्य भारत में सम्मिलित हो जाना चाहिए। पर उन्हें डर भी था कि ऐसा होने की स्थिति में महाराष्ट्र के निहित स्वार्थ गोआ को आर्थिक रूप से तबाह न कर दें।
"बट से यू?" मिस्टर फर्नांडिस ख़ासी अच्छी अँग्रेज़ी बोलते थे, पर 'वट डु यू से' की जगह हर बार 'वट से यू' ही कहते थे। उन्होंने एक एक्का मार्का बीड़ी मुँह में लगायी और जेब से एक बढ़िया लाइटर निकालकर उसे सुलगाते हुए बोले, "आप देख रहे हैं हिन्दुस्तान और गोवा में क्या फ़र्क है? हिन्दुस्तान में मैं अपने जेब-ख़र्च से सिर्फ़ यह बीड़ी खरीद सकता हूँ। गोआ में उतने ही पैसों में मुझे अच्छे सिगरेट मिल सकते हैं। यह लाइटर मैंने गोआ में खरीदा था।"
"पर इतनी-सी बात के लिए आप यह तो नहीं चाहेंगे कि गोआ में पुर्तगाली शासन बना रहे?"
उन्होंने अपना सफ़ेद सोला हैट सिर पर ठीक किया और थोड़ा खाँसकर बोले, "नहीं, यह तो मैं कभी नहीं चाहूँगा। पर एक बात मैं आपको बता दूँ। एक आम गोआनी को भारत में सम्मिलित होने पर हासिल क्या होगा? महँगी क़ीमतें और सस्ते नीरे! फिर भी मैं अण्वा वोट भारत को ही दूँगा।"
वे मुझे गोआ की ज़िन्दगी के बारे में भी कितना कुछ बताते रहे। मुख्य बात यही थी कि गोआ में ज़रूरत की चीज़ें इतनी सस्ती हैं कि किसी गोआनी का गोआ से बाहर रहने का मन नहीं करता। इस पर मैंने पूछ लिया कि वे ख़ुद गोआ छोड़कर पूना में क्यों रहते हैं, तो मिस्टर फर्नांडिस का चेहरा कुछ मुरझा गया और वे काफ़ी घुमा-फिराकर अपनी स्थिति स्पष्ट करने की चेष्टा करने लगे। मुझे लगा कि मैंने यह मामूली-सा सवाल पूछकर उन्हें अन्दर कहीं गहरे में कुरेद दिया है।
खिड़की अभी खुली नहीं थी। दोनों क्यू और लम्बे होते जा रहे थे। साथ के क्यू में खड़े कुछ युवतियाँ-युवक गीतों की पंक्तियाँ गुनगुना रहे थे और एक-दूसरे के कन्धे पकड़कर उछल रहे थे। उनमें से कुछ-एक एक-दूसरे की कमर में हाथ डालकर वहीं राभ्बा-साम्बा नाच रहे थे। उन्हें देखते हुए मिस्टर फर्नांडिस की आँखों में धुँआँ-सा भरता जा रहा था। वे कुछ देर चुपचाप उन लोगों की हरकतों को देखते रहने के बाद बोले, "एक तो आज की दुनिया में समस्याएँ बहुत हैं, और समस्याओं से भी ज्यादा नारे इस दुनिया में हैं। सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि हम हर रोज़ पहले से ज्यादा अक्लमन्द होते जा रहे हैं। जो बच्चा आज पैदा होता है, वह कल पैदा हुए बच्चे से ज्यादा अक़्लमन्द होता है। आज की दुनिया को कोई चीज़ अगर ले डूबेगी, तो वह यही है।...बट से यू?"
मैंने कहा कुछ नहीं, सिर्फ़ मुस्कराकर रह गया। "मेरा ख़याल है," वे एक बार इधर-उधर देखकर भेद को बात कहने की तरह मेरी तरफ़ झुककर बोले, "यह बढ़ती अक़्लमन्दी हम मरदों को तो धीरे-धीरे फ़िलासफ़र बनाये दे रही है, और इन औरतों को कुलटा...वट से यू?"
उसी समय हमारे वाला क्यू टूट गया। टिकटघर की खिड़की खुल गयी थी और टिकट-बाबू ने साथ के क्यू को ही सही क्यू मानकर टिकट देना शुरू कर दिया था। उसे खलबली में मैं क्यू के आख़िरी सिरे पा जा पहुँचा। मिस्टर फर्नांडिस का सफ़ेद सोला और हैट उसके बाद दिखाई नहीं दिया।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान