यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
|
9 पाठकों को प्रिय 320 पाठक हैं |
बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
चलता जीवन
अगले दिन लोण्डा स्टेशन पर गाड़ी बदलकर मैंने टाइम-टेबल देखा। मार्मुगाव तक कुल छयालीस मील का सफ़र था जिसमें गाड़ी को साढ़े आठ घंटे समय लेना था। कासलरॉक स्टेशन पर गाड़ी लंच के समय पहुँचती थी और वहाँ भी लगभग दो घंटे ठहरती थी। फिर कालेम स्टेशन पर चाय के समय पहुँचती थी और वहाँ भी लगभग उतना ही समय ठहरती थी। मैंने एक लम्बी साँस लेकर अपने को साढ़े आठ घंटे के
सफ़र के लिए तैयार कर लिया। गाड़ी चली, तो एक तटस्थ दर्शक की तरह आसपास देखने लगा। दो नीले कोटों वाले व्यक्ति मेरे पास ही बैठे थे। एक का सिर पूरा घुटा हुआ था। वे जाने कोंकणी में बात कर रहे थे, या किसी और बोली में। मराठी वह नहीं थी। दक्षिण की भाषाओं की तरह उसमें मूर्धन्य ध्वनियों की प्रधानता थी। पूछने पर पता चला कि वे लोग बम्बई के आस-पास कहीं रहते हैं और जो भाषा वे बोल रहे हैं वह 'उनकी अपनी' भाषा है। ट्रिगर की तरह हिलते कंठ और स्टेनगन की तरह ध्वनित होते शब्द-वह भाषा उनके सिवा किसी और की हो भी नहीं सकती थी!
वे एक्सपोज़ीशन के सिलसिले में गोआ जा रहे थे। यह देखकर कि वे एक-एक कान में सोने की मोटी बाली पहने हैं, मैंने उनसे इसका कारण पूछा, तो उत्तर मिला कि वह उनका अपना रिवाज़ है।
"पर एक-एक कान में ही क्यों पहनते हो?"मैंने पूछा।
"यही रिवाज़ है।"
मैं इससे आगे नहीं बढ़ सका।
गाड़ी के कासलरॉक पहुँचने तक मुझे भूख लग आयी। गाड़ी के प्लेटफ़ॉर्म पर रुकते ही मैंने बाहर निकलने के लिए दरवाज़ा खोला, तो एक सन्तरी ने बाहर से मुझे रोककर दरवाज़ा बन्द कर दिया। पता चला कि वहाँ गाड़ी दो घंटे इसलिए रुकेगी कि भारतीय कस्टम्ज़ की तरफ़ से सामान की जाँच की जाएगी। यह भी कि कालेम स्टेशन पर फिर से जाँच होगी-पुर्तगाली कस्टम्ज़ की तरफ़ से।
नीले कोटों वाले व्यक्ति अपने लंच के पैकेट साथ लाये थे। उन्होंने कम-से-कम चार आदमियों का खाना-डोसे, सेंडविच, अंडे, टोस्ट और सॉसेज-निकालकर बीच में रख लिये और बहुत हिसाब के साथ बाँटकर खाने लगे। पानी की उनके पास एक ही बोतल थी। उसमें से वे 'एक घूँट तू, एक घूँट मैं', के आधार पर पानी पीते रहे। दोनों की आत्मा पर इसका बहुत बोझ था कि वह कहीं दूसरे से ज्यादा हिस्सा न ले जाए। पूरा-का-पूरा खाना उन्होंने दस मिनट में समाप्त कर दिया।
वहाँ सामान की चेकिंग में ज्यादा दिक़्क़त नहीं हुई। गाड़ी वहाँ से चली, तो दूध-सागर के झरनों की चर्चा होने लगी। गाड़ी झरनों के पास पहुँची, तो नीले कोटों वाले व्यक्ति एक साथ खिड़की से बाहर झुक गये। प्राकृतिक सौन्दर्य के उपभोग में भी शायद वे बिल्कुल बराबर का हिस्सा रखना चाहते थे। पहली बार गाड़ी झरनों के बहुत पास से होकर निकली। काफ़ी ऊँचाई से पानी की चार-पाँच धारें नीचे गिर रही थीं। वहाँ से देखने पर उनमें कुछ विशेषता नहीं लगी। पर ज़्यों-ज़्यों गाड़ी आगे निकलती आयी, त्यों-त्यों दूर के कोणों से देखने पर उनका सौन्दर्य बढ़ता गया। जब झरने नज़र से ओझल हो गये, तो लगने लगा कि सचमुच उनका अपना ही एक सौन्दर्य था।
कालेम पहुँचकर पता चला कि वहाँ सामान की चेकिंग ही नहीं, अपनी डॉक्टरी परीक्षा भी होगी। जैसी डॉक्टरी परीक्षा मैंने वहाँ देखी, वैसी पहले कभी नहीं देखी थी। एक आला होता है जिससे झूठ और सच की परीक्षा हो जाती है। एक और आला होता है जो शरीर के अन्दर छिपे सोने का पता दे देता है। कालेम के डॉक्टर का हाथ ऐसे किसी आले से कम नहीं था। वह हर आदमी की कलाई को अपनी दो उँगलियों से छूकर ही जान लेता था कि उसे कोई रोग है या नहीं।
|
- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान