यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
जो लोग सामान की चेकिंग के लिए आये, उन्हें न तो ठीक से अँग्रेजी बोलनी आती थी, न हिन्दी। वे सिर्फ कोंकणी और पोर्तुगीज जानते थे। जिस आदमी ने मेरे सामान की चेकिंग की, उसे अँग्रेजी-हिन्दी के दो-एक वाक्य ही आते थे। उनमें एक था, 'नया है कि पुराना?' इसका सही उत्तर था, 'पुराना।' मेरे ट्रक में दो-तीन सौ खाली कागज थे। उसने उन्हें देखकर भी वही सवाल पूछा, तो मैं उसे समझाने लगा कि वे कोरे कागज हैं जो मैं अपने इस्तेमाल के लिए साथ लाया हूँ। पर उसने मेरी बात नहीं समझी और फिर वही सवाल पूछ लिया, 'नया है कि पुराना'?
'पुराना', इस बार मैंने एक शब्द मे उसे उत्तर दे दिया। उसने हस्ताक्षर कर दिये।
दूसरा वाक्य जो उसे आता था, वह था 'उसमे क्या है?' मेरे बिस्तरबन्द को देखकर उसने पूछा,"उसमे क्या है?"
"बिस्तर", मैंने कहा।
"उसमें क्या है?"
"गद्दा, तकिया और चादर"
"उसमें क्या है?"
मैंने घूरकर उसे देखा। उसने उस पर भी हस्ताक्षर कर दिये।
काले से, जहाँ लोहे की खानें हैं, पन्द्रह-बीस लड़के-लड़कियाँ हमारे डिब्बे में आ गये। वे बाहर से ही चहकते हुए आये थे और अन्दर आकर भी उसी तरह चीखते-चहकते रहे। क्रिसमस-सप्ताह चल रहा था और नया साल आने को था। उन्हें उस समय अपने पर किसी तरह का प्रतिबन्ध स्वीकार नहीं था। उन्होंने खिड़कियां बन्द कर दीं और बीस-तीस गुब्बारे अन्दर छोड़कर उनसे खेलने लगे। उनमें से बहुतों ने-लड़कियों के अलावा लड़कों ने भी-जिस्म पर काफी सोना लाद रखा था। उन्हें देखकर लगता था जैसे वहाँ की लोहे की खानों से लोहा नहीं सोना निकलता हो।
डिब्बे के अन्दर रंग-बिरंगे गुब्बारे उड़ रहे थे और खिड़की के शीशे के उस तरफ से नारियलों के घने-घने झुरमुट निकलते जा रहे थे। जिधर मैं बैठा था, उधर
नीचे घाटी थी। घाटी में उगे नारियलों के शिखर उस ऊँचाई तक उठे थे जिस पर गाड़ी चल रही थी। लगता था जैसे गाड़ी जमीन पर न चलकर उन के ऊपर-ऊपर से गुजर रही हो। जहाँ घाटी कम गहरी होती, वहाँ गाड़ी तनों के बराबर से गुजरती। फिर सहसा ऊँची जमीन आ जान से शिखर आकाश में उठ जाते और गाड़ी उनकी जड़ों में भी नीचे चलती नजर आती। मैं शीशे से साथ आँखें सटाये हरियाली के विस्तार को समुद्र की तरह उफनते देख रहा था। तभी घने नारियलों से घिरी एक उदास नहर नीचे से निकल गयी जिसमें एक छोटी सी नाव, उतनी ही उदास गति में चलकर धीरे-धीरे पुल की तरफ आ रही थी। दृश्यपट पर क्षण-भर के लिए वह दृश्य उभरा और विलीन हो गया। गाड़ी पुल से कितना ही आगे निकल आयी, पर नाव तब भी पुल से अभी उतनी ही दूर थी।
अन्दर गुब्बारों का खेल खूब जोर पकड़ रहा था, जब साँवर्दे स्टेशन आ गया। उन लड़के-लड़कियों को वहीं उतरना था। गाड़ी के स्टेशन पर रुकते ही दो-तीन युवा स्त्रियाँ डिब्बे के दरवाजे के पास आ खड़ी हुई। वे वहाँ की पोर्टर थीं। कुछ ही देर में युवतियों की दो पक्तियाँ स्टेशन के बाहर जाती दीं-एक रंग-बिरंगे गुब्बारे उड़ाती और दूसरी ट्रकों और बिस्तरों से लदी, धूल उड़ाती।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान