यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
सौ साल का गुलाम
सुबह पंजिम से मैं ओल्ड गोआ चला गया। ओल्ड गोआ में कई बड़े-बड़े गिरजाघर हैं जिनमें से एक में (उसका नाम चर्च ऑव बॉम जीज़स है) सेंट फ्रांसिस के शरीर का प्रदर्शन किया जा रहा था। वह शरीर चार सौ साल से वहाँ सुरक्षित है। गिरजाघर के बाहर दर्शनार्थियों की दो लम्बी पंक्तियाँ बनी थीं। जिनमें से प्रत्येक में उस समय कम-से-कम एक-एक हज़ार व्यक्ति खड़े थे। चिलचिलाती धूप में चार-चार छह-छह घंटे खड़े रहने के बाद ही एक व्यक्ति उस स्थान तक पहुँच सकता था जहाँ वह शरीर रखा था। मैंने सुना कि सेंट फ़्रांसिस के पैर का एक अँगूठा शीशे के केस में चादर से बाहर नज़र आता है। हर दर्शनार्थी उस स्थान को झुककर चूमता है और आगे बढ़ जाता है। चार सौ साल पुराने शरीर को देखने की उत्सुकता मेरे मन में भी थी, पर पंक्ति में चार-छह घंटे खड़े होने का धीरज नहीं था। इसलिए मैं कुछ देर वहाँ बस आसपास ही घूमता रहा।
वहाँ का वातावरण उत्तर भारत के हिन्दू-मेलों जैसा था। उसी तरह वहाँ मूर्त्तियाँ, मालाएँ और धार्मिक पुस्तकें बिक रही थीं। उन दिनों के लिए गिरजे के पास अस्थायी बाज़ार लग गया था जिसमें प्राय: सभी स्टाल चटाइयों के बने थे। बाज़ार के एक तरफ़ बड़े-बड़े मटकों में चींटों से भरी ताड़ी बिक रही थी। मैंने वहीं एक ढाबे में खाना खाया और घूमता हुआ दूर के गिरजाघरों की तरफ़ निकल गया। वे गिरजाघर एकदम सुनसान थे। कोई एक भी व्यक्ति उस तरफ़ आता दिखाई नहीं दे रहा था। एक गिरजाघर के बाहर बहुत-सी हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बिखरी थीं। शायद उन्हें बेघर करके ही वह गिरजाघर वहाँ खड़ा किया गया था। मूर्तियाँ ख़ानाबदोशों की तरह यहाँ-वहाँ पड़ी आसमान को ताक रही थीं। मैंने दो-एक उलटी मूर्तियों को सीधा कर दिया और वहाँ से आगे निकल गया।
धूप बहुत थी। मैं नारियलों के एक घने झुरमुट की तरफ बढ़ गया। झुरमुट में पहुँचकर दूर तक फैले धान के एक खेत के पास से समुद्र की तट-रेखा को देखता रहा। आसपास और भी वैसे ही खेत थे जो चारों ओर से नारियल के पेड़ों से घिरे हरियाली की छोटी-छोटी झीलों जैसे लग रहे थे। धान लहलहाता, तो झीलों में लहरें उठ आतीं। मुझे प्यास लग आयी थी। खेतों के बीच से आते एक किसान को मैंने आवाज़ देकर रोक लिया। उसने पहले कोंकणी में और फिर टूटी-फूटी अँग्रेजी में पूछा कि मैं क्या चाहता हूँ।
"यहाँ कहीं पीने का पानी मिल सकता है?" मैंने उससे पूछा।
"क्यों नहीं मिल सकता?" वह बोला। "मेरे पीछे-पीछे चले आओ।"
मैं उसके साथ चल दिया। जिस कोठरी की तरफ़ वह ले जा रहा था, वह दूर नहीं थी। पर रास्ते में दो-तीन छोटे-छोटे नाले पड़ते थे जिन पर नारियल के तने रखकर पुल बना लिये गये थे। वह तो उन्हें बहुत आसानी से पार कर जाता था, पर मेरे लिए उन पर से गुज़रना बहुत मुश्किल काम था। मैं बाँहें हिलाकर अपना सन्तुलन ठीक रखता हुआ दो-एक पुल तो पार कर गया, पर आख़िरी पुल के बीच में पहुँचकर, जो उस कोठरी के सामने था, मेरा सन्तुलन बिगड़ गया। सामने से एक कुत्ता जोर से भौंकता हुआ मेरी तरफ लपका। कुत्ते के लपकने से मेरा बिगड़ा हुआ सन्तुलन अचानक ठीक हो गया और मैं झपटकर दूसरी तरफ़ पहुँच गया।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान