यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
कोठरी के बाहर एक बाड़ा था जिसमें आठ-दस मुर्गियाँ बाद दोपहर का विश्राम कर रही थीं। बाड़े के पास पहुँचकर किसान ने मुझसे रुकने को कहा और खुद दौड़ता हुआ कोठरी के पीछे की तरफ़ चला गया। तीन-चार मिनट बाद वह हाथ में ताली लिये हुए लौटकर आया और मुझसे साथ अन्दर आने को कहकर दरवाजा खोलने लगा।
कोठरी के बाहर का आँगन अच्छी तरह पुता हुआ था। कोठरी अन्दर से भी साफ़-सुथरी थी। बीच में पार्टीशन डालकर तीन छोटे-छोटे कमरे बना लिय गये थे। एक कमरे में पलँग बिछा था जिसका बिछावन काफ़ी उजला था। दूसरे कमरे में खाना बनाने का सामान बहुत क़रीने से रखा था। तीसरे में एक नीची गोल मेज़ और दो-तीन आराम-कुर्सियाँ पड़ी थीं। उसी कमरे में एक सुराही में पानी भरा रखा था। किसान मुझे पानी देने से पहले शीशे के गिलास को मल-मलकर धोने लगा। मैंने उससे उसका नाम पूछ लिया।
"मेरा नाम है फ्रेड", उसने नम्रता और संकोच के साथ कहा।
"यहाँ के सब किसान इसी ढंग से रहते हैं जैसे तुम रहते हो?" मैंने पूछा। उसके चेहरे के भाव से लगा कि मेरा सवाल उसकी समझ में नहीं आया। मैंने समझाते हुए कहा, "मेरा मतलब है तुम्हारा घर जितना साफ़-सुथरा है, रहन-सहन जितना अच्छा है, तुमने जैसे अपनी मुर्ग़ियाँ पाल रखी हैं और कुत्ता रख रखा है, क्या और किसान भी इसी तरह रहते हैं या कुछ थोड़े से ही किसान ऐसे हैं जो इस स्तर का जीवन बिता पाते हैं? तुम्हारी पैदावार ज़्यादा है, इसलिए तुम इतनी अच्छी तरह रहने का ख़र्च उठा सकते हो या यहाँ के सब किसान इतने ही ख़ुशहाल हैं?"
मेरी लम्बी-चौड़ी बात का उसने बहुत संक्षिप्त-सा उत्तर दिया, "जी, यह कोठरी मेरी नहीं है।"
खाली गिलास वापस रखकर मैं उसके साथ कोठरी से बाहर निकल आया। एक नज़र आसपास के खेतों पर डालकर मैंने पूछा, "यह खेत भी तुम्हारे नहीं हैं?"
वह कोठरी का दरवाज़ा बन्द कर रहा था। ताला ठीक से लग गया, तो वह मूर्तियों वाले गिरजाघर की तरफ़ इशारा करके बोला, "वह गिरजा देख रहे हैं न...ये खेत उसी गिरजे के बड़े पादरी के हैं। यह घर भी उन्हीं का है। मैं उनके खेतों में काम करता हूँ। मेरा अपना घर उस तरफ़ है।" और उसने उधर इशारा किया जिधर से वह ताली लाने गया था।
"और मुर्ग़ियाँ?"
"ये भी उन्हीं की हैं। कुत्ता भी उन्हीं का है। उधर उनकी एक छोटी-सी डेरी भी है।"
"पादरी रात को गिरजे से यहाँ आ जाते हैं?"
"जी नहीं," वह बोला। यहाँ तो वे कभी-कभार आराम करने के लिए आते हैं। उनका बड़ा बँगला गिरजे के साथ है।" फिर कुछ रुककर बोला, "पर पादरी आजकल यहाँ नहीं हैं।"
"कहीं बाहर गये हैं?"
"जी हाँ अपने देश गये हैं-पुर्तगाल।"
"तुम उनके पास कब से हो?"
"हमारा ख़ानदान सौ साल से उनके ख़ानदान की सेवा में है," उसकी आँखों में गर्व की चमक आ गयी। सौ साल से इन खेतों की जुताई-कटाई हमीं लोग करते आ रहे हैं।"
और वह मेरे चेहरे पर अपनी बात का प्रभाव देखता हुआ और भी गर्व के साथ मुस्करा दिया। कोई दूर से उसे आवाज़ दे रहा था। "आप जिस रास्ते से आये हैं, उसी रास्ते से चले जाएँ, कुत्ता आपको कुछ नहीं कहेगा," कहकर वह भागता हुआ उस तरफ चला गया। उसके गर्वयुक्त चेहरे की छाप आँखों मंा लिए मैं फिर से पेड़ों के तने पार करने लगा।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान