लोगों की राय

यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक

आखिरी चट्टान तक

मोहन राकेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7214
आईएसबीएन :9789355189332

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

320 पाठक हैं

बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त

मूर्तियों का व्यापारी


हर आबाद शहर में कोई एकाध सड़क ज़रूर ऐसी होती है जो न जाने किस मनहूस वज़ह से अपने में अलग और सुनसान पड़ी रहती है। इधर-उधर की सड़कों पर ख़ूब चहल-पहल होगी, पर बीच की वह सड़क, अभिशप्त उदास और वीरान ऐसे नज़र आती है जैसे बाक़ी सड़कों ने कोई षड्यन्त्र करके उसका बहिष्कार कर रखा हो। मड़गाँव में एक ऐसी ही सड़क के बीच में रुककर मैं कुछ देर चार-पाँच अधनंगे बच्चों को सिगरेट की खाली डिबियों से अपना ही एक खेल खेलते देखता रहा।

मड़गाँव से मुझे वास्को की गाड़ी पकड़नी थी। गाड़ी शाम को साढ़े पाँच बजे आती थी और उस समय अभी तीन बजे थे। मैंने तब तक तय कर लिया था कि अगले दिन मैं गोआ से चल दूँगा। एक स्थानीय प्रोफेसर ने बतलाया था कि वहाँ पुलिस को यदि पता चला कि मैं एक भारतीय नागरिक हूँ और वहाँ रहकर हिन्दी में कुछ लिखा करता हूँ, तो यह असम्भव नहीं कि मुझे और मेरे काग़ज़ों को तब तक के लिए हिरासत में ले लिया जाए जब तक उन्हें विश्वास न हो जाए कि मैं गोआ की पुर्तगाली सरकार के विरुद्ध किसी षड्यन्त्र में सम्मिलित नहीं हूँ। परन्तु मेरे चल देने के निश्चय का कारण यह नहीं था। कारण अपनी अस्थिरता ही थी-अस्थिरता और उदासी। मुझे न जाने क्यों वह सारा प्रदेश बहुत ही बेगाना लग रहा था। अगले दिन स्टीमर 'साबरमती' बम्बई से मार्मुगाव पहुँच रहा था। मैं उसमें मगलूर जा सकता था। स्टीमर में यात्रा का मोह इतनी जल्दी कार्यक्रम बना लेने का एक और कारण था।

दोपहर को गाड़ी का समय पूछने मड़गाँव स्टेशन पर गया था। उस समय वहाँ एक व्यक्ति ने मेरे पास आकर पूछा था कि क्या मैं सवा रुपये में सेंट फ्रांसिस की एक मूर्त्ति ख़रीदना चाहूँगा। उसके पास सौ-डेढ़ सौ छोटी-छोटी प्लास्टिक की मूर्त्तियाँ थीं जो प्लास्टिक के ही पारदर्शी हंडों में बंद थीं। मेरे मना कर देने पर उसके चेहरे पर जो निराशा का भाव आया, उससे मेरा मन हुआ कि एक मूर्त्ति ख़रीद लूँ, पर यह सोचकर कि हज़ारों ईसाई यात्री वहाँ आये हुए हैं, उनमें से कितने ही उससे मूर्त्तियाँ ख़रीद लेंगे, मैं उस तरफ से ध्यान हटाकर स्टेशन से बाहर चला आया।

काफ़ी देर इधर-उधर घूमकर और सिगरेट की डिबियों का खेल देखने के बाद पहले से कहीं ज्यादा उदास होकर शाम को वापस स्टेशन पर पहुँचा, तो सबसे पहले नज़र उसी व्यक्ति पर पड़ी। मुझे अपनी तरफ़ देखते पाकर वह फिर मेरे पास चला आया और पहले बारह आने में, फिर आठ आने में मुझसे एक मूर्त्ति ख़रीद लेने का अनुरोध करने लगा। मुझे इससे अपनी पहले की सहानुभूति के लिए भी खेद हुआ। लगा कि वह उन्हीं फेरीवालों में से एक है जो इसी तरह चीज़ों की क़ीमतें घटा-बढ़ाकर लोगों को ठगा करते हैं। मैंने हलकी त्योरी के साथ सिर हिलाकर फिर मना कर दिया। इस पर उसने ख़ुशामद के साथ कहा, "देखिए प्लीज़, एक मूर्त्ति की कीमत सवा रुपये से कम नहीं है। मैं दूसरी कोई मूर्त्ति सवा रुपये से कम में नहीं बेचूँगा।"

मेरा मन उदास था और मुझे मूर्त्ति में कोई दिलचस्पी नहीं थी। मैं जाकर एक बेंच पर बैठ गया। वह वहाँ भी मेरे पीछे-पीछे चला आया।

"पर तुम क्यों वह मूर्त्ति मेरे मत्थे मढ़ने के पीछे पड़े हो?" मैंने काफी झुँझलाहट के साथ कहा। "तुम्हें और कोई नहीं मिल रहा ख़रीदने वाला?"

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रकाशकीय
  2. समर्पण
  3. वांडर लास्ट
  4. दिशाहीन दिशा
  5. अब्दुल जब्बार पठान
  6. नया आरम्भ
  7. रंग-ओ-बू
  8. पीछे की डोरियाँ
  9. मनुष्य की एक जाति
  10. लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
  11. चलता जीवन
  12. वास्को से पंजिम तक
  13. सौ साल का गुलाम
  14. मूर्तियों का व्यापारी
  15. आगे की पंक्तियाँ
  16. बदलते रंगों में
  17. हुसैनी
  18. समुद्र-तट का होटल
  19. पंजाबी भाई
  20. मलबार
  21. बिखरे केन्द्र
  22. कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
  23. बस-यात्रा की साँझ
  24. सुरक्षित कोना
  25. भास्कर कुरुप
  26. यूँ ही भटकते हुए
  27. पानी के मोड़
  28. कोवलम्
  29. आख़िरी चट्टान

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book