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यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक

आखिरी चट्टान तक

मोहन राकेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7214
आईएसबीएन :9789355189332

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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त

वह पल-भर ख़ामोश रहा। फिर जैसे संकोच का पर्दा हटाता हुआ बोला, "देखिए प्लीज़, बात यह है कि मैं सुबह से अब तक एक भी मूर्त्ति नहीं बेच पाया। मेरे पास एक भी पैसा नहीं है, और मैं सुबह से भूखा हूँ। आज नये साल का दिन है। मैं ईसाई हूँ। चाहिए तो यह था कि आज मैं नये कपड़े पहनकर घर से निकलता और दिन-भर मौज उड़ाता, पर मेरा ट्रंक फ़ादर डिसूज़ा के कमरे में है और फ़ादर कमरे की ताली अपने साथ ले गये हैं। मैं सुबह से न कपड़े बदल सका हूँ और न खाना खा पाया हूँ। सोचा था कि दो-एक मूर्त्तियाँ बिक जाएँगी, तो कम-से-कम खाने का सिलसिला तो हो ही जाएगा। मगर नये साल का दिन है, मुँह से कुछ कहा भी नहीं जाता। मेरे लिए यह दिन ऐसा मनहूस चढ़ा है कि सुबह से अब तक एक प्याली चाय भी गले से नीचे नहीं उतार सका। रोज़ मैं सौ-पचास मूर्त्तियाँ बेच लेता हूँ, पर आज पूरे दिन में एक भी नहीं बिक पायी। इस वक़्त भूख के मारे मेरा क्या बुरा हाल है, मैं बता नहीं सकता।"

वह चौबीस-पचीस साल का युवक था। पर बात करते हुए उसकी आँखें लड़कियों की तरह झुकी जा रही थीं। मैं तब भी तय नहीं कर पाया कि वह सच कह रहा है या यह भी उसकी दुकानदारी का ही एक लटका है। "ये फ़ादर डिसूज़ा कौन है?" मैंने उससे पूछा।

"हमारे पार्सन हैं," वह बोला। "मैं उन्हीं के साथ बम्बई से यहाँ आया हूँ।"

"ये मूर्त्तियाँ भी तुम बम्बई से ही लाये हो?"

"नहीं, ये फ़ादर डिसूज़ा रोम से लाये थे।"

"और तुम उन्हीं की तरफ से इन्हें बेच रहे हो?"

"जी हाँ। फ़ादर डिसूज़ा मुझे इन पर पाँच प्रतिशत कमीशन देते हैं। हमने इन थोड़े-से ही दिनों में बारह-तेरह सौ मूर्त्तियाँ बेच ली हैं। मगर आज का दिन जाने क्यों इतना ख़राब चढ़ा है। आज पहली जनवरी है। मैं डर रहा हूँ कि मेरा पूरा साल ही कहीं इस तरह न बीते।"

"पर फ़ादर डिसूज़ा कमरा बन्द करके कहाँ चले गये?" मैंने पूछा।

"आधी रात को उनका...के बड़े गिरजे में सर्मन था। रात के बारह बजे नया साल शुरू होने के समय वहाँ प्रार्थनाएँ होनी थीं-उनके बाद उन्हें सर्मन देना था। उन्हें इसीलिए विशेष रूप से यहाँ बुलाया गया था। एक साल पहले से ही इन लोगों ने उनसे वचन ले रखा था।"

"फ़ादर डिसूज़ा रोम कब गये थे?"

"चार महीने पहले। अभी महीना-भर पहले लौटकर आये हैं।" फिर पल-भर रुका रहने के बाद वह बोला, "जाते हुए वे ताली इसलिए साथ लेते गये होंगे कि तीन-चार हज़ार की मूर्त्तियाँ अब भी कमरे में रखी हैं। मुझे उस समय उन्होंने यहाँ के एक और गिरजे में मूर्त्तियाँ बेचने के लिए भेज रखा था। मेरे लौटकर आने से पहले ही उन्हें चले जाना पड़ा। अब कल सुबह से पहले वे लौटकर नहीं आएँगे।" फिर उसी आग्रह के साथ उसने कहा, "आप एक मूर्त्ति ले लीजिए। प्लीज़ मैं आपको चार आने में दे रहा हूँ।"

"आओ तुम मेरे साथ चाय पी लो," मैंने कहा। "मूर्त्ति मुझे नहीं चाहिए।"

हम चाय-स्टाल पर पहुँचे, तो पुर्तगाली सिपाहियों का एक दस्ता मार्च करता हुआ हमारे सामने से निकल गया। वह कुछ देर उन्हें देखता रहा। फिर जबड़े सख्त किये बोला, "किस तरह अकड़कर चलते हैं ये। दिन-भर मैं इन्हें यहाँ इधर से

उधर गश्त लगाते देखता हूँ। करते-धरते ये कुछ नहीं, बस अकड़कर चलना जानते हैं। कोई इनकी आँखों के सामने मर भी जाए, तो ये उसे उठाएँगे नहीं, सड़क पर पड़ा रहने देंगे। मैंने यह अपनी आँखों से देखा है। यहाँ मड़गाँव की ही एक सड़क पर एक मरा हुआ कुत्ता तीन दिन उसी तरह पड़ा रहा। इनका शायद ख़याल था कि कुत्ते के भाई-बन्द ही उसे उठाकर दफ़नाने के लिए ले जाएँगे।"

ज्यों-ज्यों चाय के घूँट और केक के टुकड़े गले से नीचे उतर रहे थे, उसके चेहरे पर सचमुच कुछ जान आती जा रही थी। अपनी प्याली खाली करके वह आँखें बन्द किये पल-भर न जाने क्या सोचता रहा। फिर बोला, "मैं जानता हूँ मुझे आज किस पाप की यह सज़ा मिली है। मैं आज नये साल के दिन सुबह गिरजे में प्रार्थना करने नहीं गया। उसी का यह फल है। मैं अपने मैले कपड़ों की वजह से झिझकता रहा। पर ईश्वर के घर मैले कपड़ों में जाने में आदमी को संकोच क्यों हो? मुझे वहाँ कोई रोकता थोड़े ही? इतना ही था न कि लोग देखकर समझते कि..." और उस वाक्य को अधूरा छोड़ उसने फिर कहा, "ख़ैर मुझे पता तो चल ही गया है, कि यह मुझे किस चीज़ की सज़ा मिली है। यही वजह है जो मेरी मूर्त्तियाँ आज नहीं बिकीं।"

मैं बिना उससे उस सम्बन्ध में कुछ कहे चाय के घूँट भरता रहा। मन में मूर्त्तियों के उस व्यापारी के विषय में सोच रहा था जो रात को सर्मन देने गया था और ताली अपने साथ लेता गया था क्योंकि।

 

* * *

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    अनुक्रम

  1. प्रकाशकीय
  2. समर्पण
  3. वांडर लास्ट
  4. दिशाहीन दिशा
  5. अब्दुल जब्बार पठान
  6. नया आरम्भ
  7. रंग-ओ-बू
  8. पीछे की डोरियाँ
  9. मनुष्य की एक जाति
  10. लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
  11. चलता जीवन
  12. वास्को से पंजिम तक
  13. सौ साल का गुलाम
  14. मूर्तियों का व्यापारी
  15. आगे की पंक्तियाँ
  16. बदलते रंगों में
  17. हुसैनी
  18. समुद्र-तट का होटल
  19. पंजाबी भाई
  20. मलबार
  21. बिखरे केन्द्र
  22. कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
  23. बस-यात्रा की साँझ
  24. सुरक्षित कोना
  25. भास्कर कुरुप
  26. यूँ ही भटकते हुए
  27. पानी के मोड़
  28. कोवलम्
  29. आख़िरी चट्टान

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