यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
आगे की पंक्तियाँ
जिस समय मैं वास्को पहुँचा, रात हो चुकी थी। कारवाड़कर प्रतीक्षा कर रहा था। उसने अगले रोज़ वहाँ से सोलह मील दूर एक मन्दिर देखने चलने का कार्यक्रम बना रखा था। जब मैंने उसे बताया कि मैंने सुबह 'साबरमती' से मंगलूर चले जाने का निश्चय किया है, तो उसे बहुत निराशा हुई। उसने पिकनिक का सामान तैयार कर लिया था और अपनी साली को भी, जो वहाँ पर लेडी डॉक्टर थी, साथ चलने का निमन्त्रण दे दिया था। पर मुझे उसने यह सब नहीं बताया। सुबह नाश्ते के समय मुझे मालूम हुआ कि जो कुछ मैं खा रहा हूँ, वह सारा सामान उस दिन की पिकनिक के लिए तैयार किया गया था। मुझे अफ़सोस हुआ। पर तब तक कारवाड़कर ख़ुद ही जाकर मार्मुगाव से मेरे लिए 'साबरमती' का टिकट ले आया था।
रात को मैं कारवाड़कर के साथ फिर घूमने निकल गया था। चाँदनी रात में वास्को की मुख्य सड़क, जिसके बीचोंबीच थोड़े-थोड़े फ़ासले पर छोटे-छोटे पेड़ लगे हैं, एक रूमाली नींद में सोयी लग रही थी। हमारे दायीं ओर नये साल के लिए सजायी गयी कोठियों में नृत्य-संगीत चल रहा था। बायीं ओर से समुद्र की लहरों की हल्की-हल्की आवाज़ सुनाई दे रही थी। मुझे लगा कि मैंने जितने शहर अब तक देखे हैं, उनमें वास्को सबसे सुन्दर है-दो-चार पक्तियों की एक छोटी-सी भावपूर्ण कविता की तरह। मैंने कारवाड़कर से यह बात कही, तो वह थोड़ा मुस्कराया और बोला, "इस सुन्दर कविता की कुछ पंक्तियाँ इससे आगे मिलेंगी। इसी सड़क पर थोड़ा-सा और आगे।"
मैं दिन-भर घूमकर काफी थक चुका था और तब उससे लौटने को कहने की सोच रहा था। पर शहर के उस भाग को भी देख लेने के लोभ से चुपचाप उसके साथ चलता रहा।
सड़क का वह हिस्सा जहाँ बीच में पेड़ लगे थे, पाछे रह गया। आगे खुली सड़क थी। दायीं ओर कुछ बड़ी-बड़ी कोठियाँ थीं जो एक-दूसरे से काफ़ी हटकर बनी थीं। कुछ रास्ता और चलकर कारवाड़कर बायीं ओर को मुड़ गया और कच्चे रास्ते पर चलने लगा। उस ऊँचे-नीचे रास्ते पर चलते हुए अँधेरे में एक जगह मैं ठोकर खा गया।
"यह तुम मुझे कहाँ लिये चल रहे हो?" मैंने ठोकर खाये पैर को दूसरे पैर से दबाते हुए कहा।
"जो जगह तुम्हें दिखाना चाहता हूँ वह इसी तरफ़ है", कारवाड़कर बोला। "अब हमें बस सौ-पचास ग़ज़ ही और जाना है।"
रास्ता कभी दायें और कभी बायें को मुड़ता हुआ कुछ झोपड़ियों के सामने आ निकला। प्राय: सभी झोपड़ियाँ चटाई की बनी थीं। बीस साल पुरानी चटाई की दीवरों का जो मैला-फटा और गला-सड़ा रूप हो सकता है, वह उन झोपड़ियों में नज़र आ रहा था। एक झोपड़ी के आगे दो मोमबत्तियाँ जल रही थीं। उस ओर संकेत करके कारवाड़कर ने कहा, "वह एक ईसाई का घर है जो इस तरह आज अपना नया साल मना रहा है।"
"यहाँ यही एक ईसाई का घर है?" मैंने पूछा।
"नहीं," वह बोला। "यह मिली-जुली बस्ती है। ज्यादातर घर यहाँ धोबियों के हैं जिनमें आधे से ज्यादा ईसाई हैं। पर यह आदमी शायद औरों से ज्यादा मालदार है। देखना, ज़रा बचकर आना..." उसने सहसा बाँह से पकड़कर मुझे होशियार कर दिया। मैंने वक़्त से सँभलकर झोपड़ियों के आगे से बहते गन्दे पानी के नाले को पार कर लिया।
एक झोपड़ी के बाहर पहुँचकर कारवाड़कर ने किसी को आवाज़ दी। एक आदमी हाथ में दीया लिये अन्दर से निकल आया। कारवाड़कर ने उससे कोंकणी में कुछ बात की। फिर हम लोग वहाँ से वापस चल पड़े। चलते हुए कारवाड़कर बतलाने लगा उस आदमी से उसने पूछा था कि वह ईसाई होकर भी आज नया साल क्यों नहीं मना रहा। उस आदमी ने उत्तर उसने आज दिन-भर सोकर नया माल मना लिया है। "यह है यहाँ की वास्तविक कविता। कैसी लगी तुम्हें?" उसने कहा और मुझे चुप देखकर मुस्करा दिया।
वहाँ से निकलकर हम फिर पक्की सड़क पर आ गये। कविता की पहली पंक्तियाँ फिर सामने उभरने लगीं।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान