यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
|
9 पाठकों को प्रिय 320 पाठक हैं |
बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
बदलते रंगों में
सुबह कारवाड़कर मुझे 'साबरमती' में चढ़ा गया। दो बजे के लगआग स्टीमर का लंगर उठा और स्टीमर खुले समुद्र की तरफ बढ़ने लगा। मैं उम समय एक तरफ़ तख्ते पा बैठा मुँडेर पर बाँहें टिकाये पानी में बनती लहरों की जालियों को देख रहा था। पानी की सतह पर एक कार्ड तैर रहा था जिससे एक केकड़ा चिपका था। लहरें कार्ड को स्टीमर की तरफ़ धकेल रही थीं, मगर केंकड़ा निश्चिन्त भाव से बैठा शायद अपनी नाव के स्टीमर से टकराने की राह देख रहा था। जब कार्ड स्टीमर के बहुत पास आ गया, तो स्टीमर के नीचे से कटते पानी ने उसे फिर परे धकेल दिया। केंकड़े ने अपनी दो टाँगें ज़रा-सी उठाकर फिर ये कार्ड पर जमा लीं और उसी निश्चिन्त मुद्रा में बैठा गति का आनन्द लेता रहा।
जब तक स्टीमर हार्बर में था, तब तक समुद्र का पानी एक हरी आभा लिये था। पर स्टीमर खुले समुद्र में पहुँचने लगा, तो पानी का रंग नीला नज़र आने लगा। पीछे हार्बर में जापानी जहाज़ 'चुओ मारो' की चिमनियाँ नज़र आ रही थीं। हमारे एक तरफ़ खुला अरब सागर था और दूसरी तरफ़ भारत का पश्चिमी तट। तट से थोड़ा इधर पानी में दो छोटे-छोटे द्वीप दिखाइ दे रहे थे जो दूर से बहुत कुछ जापानी घरों-जैसे ही लगते थे। इतनी दूर से देखते हुए पश्चिमी तट की रेखा एक बड़े से नक्शे की रेखा लग रही थी। बीच के दोनों द्वोपों से सफ़ेद समुद्र-कपोत उड़कर स्टीमर की तरफ़ आ रहे थे। उनमें से कुछ तो रास्ते में ही पानी की सतह पर उतर जाते थे और नन्हीं-नन्हीं काग़ज़ की नावों की तरह वहाँ तैरने लगते थे। दूसरी तरफ़ खुले पानी में सहसा एक तरह की हरियाली घुल गयी। मैं उस रंग को फैलते और धीरे-धीरे विलीन होते देखता रहा-जैसे कि समुद्र के मन में सहसा एक विचार उठा हो जो अब धीरे-धीरे उसके अवचेतन में डूबता जा रहा हो। मेरे साथ उसी तख्ते पर बैठा एक नवयुवक भी उस हरियाली को घुलते देख रहा था। उसने मेरी तरफ़ मुड़कर कहा-"देखिए, ज़िन्दगी कितना बड़ा चमत्कार है!"
मैं कुछ न कहकर उसकी तरफ़ देखने लगा।
"आप जानते हैं, यह हरियाली क्या है?" वह बोला। "ये प्लैंटोंज़ है-तैरते हुए जीव। इनमें पौधे और मांसयुक्त प्राणी दोनों तरह के जीवाणु शामिल हैं।"
वह नवयुवक प्राणि-विज्ञान का विद्यार्थी था, और प्राणि-विज्ञान की दृष्टि से ही समुद्र को देख रहा था। विद्यार्थियों की एक पार्टी किसी शोध-प्रोजेक्ट के सिलसिले में गोआ आयी थी। वह उस पार्टी का एक सदस्य था। पानी की तरफ संकेत करके वह फिर बोला, "आप वह रस्सी देख रहे हैं?"
मुझे पहले कोई रस्सी नज़र नहीं आयी। पर कुछ देर ध्यान से देखने पर पानी की सतह के नीचे एक लहराती हुई काली लकीर दिखाई दे गयी।
"वह रस्सी ही है न?" उसने पूछा।
"हाँ, कोई पुरानी गली हुई रस्सी है", मैंने कहा।
वह मुस्कराया। "नहीं, वह रस्सी नहीं है। वह भी एक जीव-समूह है।"
"जीव-समूह?"
"हाँ, जीव-समूह," वह बोला। "इन्हें एसीडियन जर्म-परिवार कहते हैं। ये एक तरह की मछलियाँ हैं जो आपस में जुड़ी रहती हैं। ये रबड़ की तरह फैल सकती हैं, और काटने से ही अलग होती हैं। बाद में ये फिर उसी तरह जुड़ने और बड़ी होने लगती हैं।"
|
- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान