यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
"देखो ये साले कैसे एक्का-बादशाह-गुलाम की बाज़ी खेल रहे हैं।"
हुसैनी कुछ पल उनकी तरफ देखते रहने के बाद दाँत उघाड़कर बोला।
"एक्का-बादशाह-गुलाम की बाज़ी?" बात मेरी समझ में नहीं आयी। उसकी भाषा के ज्यादातर मुहावरे ताश से सम्बन्ध रखते थे जो उसकी अपनी ही ईजाद थे।
"फ़्लैश खेलते हो?" उसने पूछा।
मैंने सिर हिलाकर हामी भर दी।
"तो तुम समझ नहीं पाये कि एक्का-बादशाह-गुलाम की बाज़ी का क्या मतलब है? तीन बड़ी-बड़ी तस्वीरें, पर कुल मिलाकर कुछ भी नहीं। बात करते हुए उसकी आँखों में फिर वही चमक आ गयी। "इन सालों की ज़िन्दगी भी बस ऐसी ही है। अपने हाथ-पल्ले कुछ है नहीं, हम दुक्के-चौके-पंजे वालों को अपना एक्का-बादशाह-गुलाम दिखाकर रौब डाल रहे हैं। आख़िर हालत इनकी भी वही होगी जो दुक्के-चौके-पंजे वालों की। सिर्फ़ ये लोग ज़रा पिटकर अपनी जगह पर आएँगे!" और मेरे कन्धे को फिर से हाथ का निशाना बनाते हुए उसने कहा, "है नहीं ट्रम्प?"
"ट्रम्प तो ज़ोरदार है," मैंने कहा, "पर हर ट्रम्प इस तरह मेरे कन्धे पर मत लगाओ।"
"बातें तुम भी मज़ेदार करते हो," उसने हँसकर कहा और एक हाथ मेरे कन्धे पर और लगा दिया।
मंगलूर में हम एक ही होटल में ठहरे। वह एक छोटा-सा ब्राह्मण-होटल था। हुसैनी अक्सर वहीं ठहरता था। उस होटल में मैंने एक यज्ञोपवीत-धारी महाराज को हुसैनी का जूठा गिलास उठाते देखा, तो मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ। मेरा ख़याल था कि दक्षिण के ब्राह्मण बहुत कट्टर होते हैं और छुआछूत का बहुत ध्यान रखते हैं। पहले मैंने सोचा कि शायद महाराज को पता ही न हो कि हुसैनी मुसलमान है। पर थोड़ी देर में महाराज उसका नाम पुकारता हुआ आया, तो मुझे अपना ख़याल बदल लेना पड़ा।
उस एक-डेढ़ दिन में ही मैं हुसैनी के बारे में काफ़ी कुछ जान गया था। वह कलकत्ता के नक़ली मोतियों के व्यापारी का लड़का था। शुरू में कई साल वह अपने पिता के साथ काम करता रहा था। पर एक बार जब पिता ने उससे लड़कर यह ताना दिया कि वह उन्हीं के आसरे रोटी खाकर जी रहा है, तो वह उसी समय दुकान से उतर आया और लौटकर वहाँ नहीं गया। तब वह अकेला नहीं था-उसकी पत्नी और दो बच्चे भी थे। उसे उनसे बहुत प्यार था और वह उनके लिए ज्यादा-से-ज्यादा सुविधाएँ जुटाना चाहता था। पर वह ज्यादा शिक्षित नहीं था और न ही उसके पास अपना व्यापार करने के लिए पैसा था। कुछ दिन तो वह कलकत्ते में ही एक जगह नौकरी करता रहा जहाँ से महीने के उसे कुल साठ रुपये मिलते थे। उतने से रोटी का खर्च भी ठीक से नहीं चल पाता था। उसे यह देखकर दु:ख होता था कि बच्चे दिन-ब-दिन पीले पड़ते जा रहे हैं और पत्नी का शरीर बाईस साल की उम्र में ही अपनी चमक खो रहा है। इसलिए जब ताश कम्पनी की यह नौकरी मिलने को हुई तो उसने बगैर शशोपंज के इसे स्वीकार कर लिया। इसमें वह कुल मिलाकर महीने में दो-सवा-दो सौ रुपये कमा लेता था। पर साल में ग्यारह महीने उसे सफ़र में रहना पड़ता था। कभी-कभी तो वह लगातार आठ-आठ महीने घर से बाहर रहता था। इसी वजह से यह काम उसे पसन्द नहीं था। वह हमेशा इस दुविधा में रहता था कि घर वालों के पास रहकर अभाव की ज़िन्दगी बिताना ज्यादा अच्छा है, या उनसे दूर रहकर थोड़ी-बहुत सुविधाएँ जुटा पाना। उसकी पत्नी चाहती थी कि वह घर पर ही रहे-उन्हें चाहे कैसा भी जीवन व्यतीत करना पड़े। वह भी बहुत बार यही सोचता था, और दौरे के दिनों में इसका निश्चय भी कर लेता था। पर घर पहुँचकर देखता कि बच्चों का स्वास्थ्य पहले से अच्छा हो रहा है और पत्नी के शरीर में भी निखार आ रहा है, तो उसका मन फिर डाँवाडोल हो जाता। वह सोचता कि क्या यह उचित होगा कि वह अपनी तकलीफ़ से बचने के लिए बच्चों के स्वास्थ्य और पत्नी के सौन्दर्य को मिट्टी में मिल जाने दे? तब वह हर तरह के तर्क देकर और भविष्य की कई-कई योजनाएँ बनाकर फिर घर से निकल पड़ता। इस बार उसे कलकत्ते से चले लगभग चार महीने हो चुके थे। वापस लौटने से पहले अभी साढ़े तीन-चार महीने और उसे दक्षिण भारत में घूमना था।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान