यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
"ऐसी ज़िन्दगी जीने के लिए सचमुच बहुत धीरज चाहिए," मैंने उसकी बात सुनकर कहा।
"पहले तो कई बार मन बहुत परेशान हो जाता," वह बोला। "पर अब मैंने अपने को खुश रखने का एक तरीका सीख लिया है, और वह है खुश रहना। जब कभी मन उदास होने लगता है, तो मैं जिस-किसी के पास जाकर मज़ाक़ की दो बातें कर लेता हूँ। वह मुझे हँसोड़ समझता है और मेरी तबीयत बहल जाती है। फिर भी कभी-कभी बहुत मुश्किल हो जाता है।"
हुसैनी की ख़ुशदिली में सन्देह नहीं था। उसे अपने आसपास हमेशा कुछ-न-कुछ ऐसा दिखाई दे जाता था जिस पर वह कोई चुस्त-सा फ़िकरा कस सके। शाम को मंगलूर में एक नया होटल खुल रहा था जिसका उद्घाटन करने मैसूर के राजप्रमुख आ रहे थे। जब राजप्रमुख की कार आयी, तो बाजार में कई व्यक्तियों की भीड़ कार के आसपास जमा हो गयी। हुसैनी मुझसे बोला, "पता है ये लोग भाग-भागकर क्या देख रहे हैं? देख रहे हैं कि राजप्रमुख की कार भी पहियों पर ही चलती है या हवा में उड़ती है। जब देखते हैं कि उसके नीचे भी पहिये लगे हैं, तो बहुत हैरान होते हैं।"
"हँसने के लिए इनसान को कहीं जाने की ज़रूरत नहीं," उसने चलते हुए कहा। "आज की दुनिया में इनसान को कहीं भी हँसने का सामान मिल सकता है। अगर मंगलूर का एक जौहरी अपनी दुकान में सोने-चाँदी के साथ मौसम्बियाँ भी बेचता है, तो सिर्फ़ इसीलिए कि मेरे-जैसा आदमी राह चलते रुककर एक बार ज़ोर से ठहाका लगा सके।"
मंगलूर में अधिकांश घर हरियाली के बीचोंबीच इस तरह बने हैं कि उसे एक उफान-नगर कहा जा सकता है। सुरुचि और सादगी, ये दोनों विशेषताएँ वहाँ के घरों में हैं। इससे साधारण से घर भी साधारण नहीं लगते। घूमते हुए हम लोग एक छोटी-सी पहाड़ी पर चले गये। वहाँ से शहर का रूप कुछ ऐसा लगता था जैसे घने नारियलों की एकतारन्यता को तोड़ने के लिए ही कहीं-कहीं सड़कें और घर बना दिये गये हों। दूर समुद्र की तट-रेखा दिखाई दे रही थी। मैं पहाड़ी के एक कोने में खड़ा देर तक शहर के सौन्दर्य को देखता रहा। शुरू से उत्तर भारत के घुटे हुए तंग शहरों में रहने के कारण वह सब मुझे बहुत आकर्षक लग रहा था। जब मैं चलने के ख़याल से वहाँ से हटा, तो देखा कि हुसैनी पहाड़ी के दूसरे सिरे पर जाकर एक पत्थर पर बैठा उदास नज़र से आसमान को ताक रहा है। उसका भाव कुछ ऐसा था कि मैंने सहसा उसे बुलाना ठीक नहीं समझा। क्षण-भर हुसैनी ने मेरी तरफ देखा और देखते ही आँखें दूसरी तरफ हटाकर बोला, "तुम यहाँ से अकेले होटल वापस जा सकते हो?"
"क्यों,"
"तुम नहीं चल रहे?" मैंने पूछा।
"मैं जरा देर से आऊँगा," वह उसी तरह आँखें दूर के एक पत्थर पर गड़ाये रहा।
"तो जब भी तुम चलोगे, तभी मैं भी चलूँगा," मैंने कहा। "मुझे वहाँ जल्दी जाकर क्या करना है?"
"नहीं," वह बोला। "अच्छा है तुम अकेले ही चले जाओ। मैं कह नहीं सकता मुझे लौटने में अभी कितनी देर लगे।"
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान