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यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक

आखिरी चट्टान तक

मोहन राकेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7214
आईएसबीएन :9789355189332

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"विचारों की गहराई और यात्रा के अनुभवों का संगम : मोहन राकेश का आख़िरी चट्टान तक यात्रा-वृत्तान्त"

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उसका भाव एकाएक ऐसा क्यों हो गया है। पर मैंने उससे इस विषय में पूछना उचित नहीं समझा और उसे उसी तरह बैठे छोड़कर वहाँ से चला आया। होटल में आकर खाना खाया और फिर से घूमने निकल गया। जब वापस पहुँचा, तब भी हुसैनी नहीं आया था। मैं अपने कमरे में बैठकर कुछ देर एक उपन्यास के पन्ने पलटता रहा। दस बजे के क़रीब सोने से पहले मैंने फिर एक बार उसके कमरे की तरफ जाकर देख लिया। वह तब भी नहीं आया था। एक बार मन हुआ कि उसी पहाड़ी पर जाकर देख आऊँ, पर कुछ तो यह सोचकर कि इतनी रात तक वह वहाँ नहीं हो सकता, और कुछ आँखों में भरी नींद के कारण मैंने यह ख़याल छोड़ दिया और अपने कमरे में आकर लेट गया। लेटने पर कुछ देर लगता रहा कि मेरा पलँग स्टीमर की तरह डोल रहा है। धीरे-धीरे मुझे नींद आ गयी।

मुझे सोये अभी थोड़ी ही देर हुई थी, जब दरवाज़े पर हल्की दस्तक सुनाई दी। मैं चौंककर उठ बैठा। बत्ती जलाकर दरवाज़ा खोला, तो सामने हुसैनी खड़ा था।

उसका चेहरा काफ़ी बदला हुआ था। आँखें लाल थीं और भाव ऐसा जैसे किसी अपराध में पकड़े जाने पर बाँह छुड़ाकर भाग आया हो। मैंने सोचा वह शायद शराब पीकर आया है। पर वह शराब पीकर नहीं आया था।

"माफ़ करना, मैंने तुम्हारी नींद ख़राब की है," उसने ओछा पड़ते हुए कहा। "वैसे माफ़ी तो मुझे उस वक़्त के लिए भी माँगनी चाहिए, पर इस तरह तकल्लुफ़ बरतने लगूँगा तो असली बात पर नहीं आ सकूँगा। मै इस वक़्त तुमसे एक मदद चाहता हूँ।"

"बताओ, क्या बात है?" मैं बाहर निकल आया। "तुम ऐसे क्यों हो रहे हो?"

"ख़ास बात कुछ भी नहीं है। तुम कपड़े बदल लो और मेरे साथ कुछ दूर घूमने चलो।"

"बस इतनी-सी ही मदद चाहिए?"

"हाँ, तुम इतनी-सी ही समझ लो।"

मैंने कपड़े पहनकर दरवाज़े को ताला लगाया और उसके साथ चल पड़ा। सड़क पर आकर वह बोला, "बताओ, किस तरफ़ चलें?"

मैं बिल्कुल नहीं समझ पा रहा था। वह ख़ुद तो मुझे लेकर आया था और मुझी से पूछ रहा था-"किस तरफ़ चलें।"

"तुम जिस तरफ़ भी चलना चाहो," मैंने कहा।

"नहीं," वह बोला। तुम जिस तरफ़ कहो, उसी तरफ़ चलते हैं। मैं इस

वक़्त तुम्हारी मरजी से चलना चाहता हूँ। मेरी अपनी मरजी कुछ नहीं है।"

"तो किसी पार्क में चलें?"

"तो ठीक है किसी पार्क में चलते हैं। यहाँ के रास्ते मैं नहीं जानता, इसलिए ले चलना तुम्हीं को होगा।"

कुछ देर हम चुपचाप चलते रहे। उस-जैसा जीवन व्यतीत करनेवाले व्यक्ति की ऐसी मनःस्थिति अस्वाभाविक नहीं था। परन्तु किस विशेष कारण से वह एकाएक ऐसा हो गया है, उसका मैं अनुमान नहीं लगा पा रहा था।

पार्क में पहुँचकर हम एक जगह घास पर बैठ गये। मैंने उससे कुछ नहीं पूछा। कुछ देर बाद वह ख़ुद ही बोला, "देखो दोस्त, मेरे इस अटपटेपन का बुरा नहीं मानना। मैं रास्ते में सोचता आ रहा था कि तुम मुझसे इस सनक की वजह पूछोगे, तो मैं क्या बताऊँगा। असल बात मैं नहीं बताना चाहता था। पर तुमने कुछ नहीं पूछा, इसलिए मैं अब तुमसे वह बात छिपाकर नहीं रख सकता।"

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    अनुक्रम

  1. प्रकाशकीय
  2. समर्पण
  3. वांडर लास्ट
  4. दिशाहीन दिशा
  5. अब्दुल जब्बार पठान
  6. नया आरम्भ
  7. रंग-ओ-बू
  8. पीछे की डोरियाँ
  9. मनुष्य की एक जाति
  10. लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
  11. चलता जीवन
  12. वास्को से पंजिम तक
  13. सौ साल का गुलाम
  14. मूर्तियों का व्यापारी
  15. आगे की पंक्तियाँ
  16. बदलते रंगों में
  17. हुसैनी
  18. समुद्र-तट का होटल
  19. पंजाबी भाई
  20. मलबार
  21. बिखरे केन्द्र
  22. कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
  23. बस-यात्रा की साँझ
  24. सुरक्षित कोना
  25. भास्कर कुरुप
  26. यूँ ही भटकते हुए
  27. पानी के मोड़
  28. कोवलम्
  29. आख़िरी चट्टान

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