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आखिरी चट्टान तक

मोहन राकेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7214
आईएसबीएन :9789355189332

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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त

वह बाँहें पीछे फैलाकर बैठ गया। आँखें उस कोण पर रखकर जहाँ से कि वह मेरे सिर से ऊपर-ही-ऊपर देख सकता था, धीरे-धीरे कहने लगा, "तुमने देखा था उस वक़्त पहाड़ी पर बैठे हुए मेरी तबीयत एकाएक बहुत उदास हो गयी थी। वैसे यह कोई नयी चीज़ नहीं है, बहुत बार मेरे साथ ऐसा होता है। जब मुझे घर से निकले दो-तीन महीने हो जाते हैं, तो अक्सर इस तरह के मौके आने लगते हैं। मेरा काम घूमकर ऑर्डर लेने का है और जिस किसी शहर में मैं जाता हूँ वहाँ चार-पाँच बजे तक सौदागरों से मिलकर अपना काम पूरा कर लेता हूँ। शाम को मैं बिल्कुल अकेला पड़ जाता हूँ, और अकेला ही कहीं इधर-उधर घूमने निकल जाता हूँ।"

उसने आँखें एक बार नीचे लाकर मुझे देखा, फिर उन्हें उसी कोण पर रखकर बोला, "ऐसे में मेरी हमेशा यही कोशिश रहती है कि मैं लोगों के बीच में रहूँ किसी ऐसी ही जगह जाऊँ जहाँ चार आदमी और भी हों। पर कभी-कभी जान-बूझकर मैं किसी अकेली जगह पर चला जाता हूँ, और वहाँ यही उदासी मुझे घेर लेती है। क्यों मेरी ऐसी ख्वाहिश होती है और क्यों मैं जान-बूझकर ऐसी जगह जाता हूँ, मैं नहीं जानता। शायद ऐसे मौके पर उदास होकर ही मुझे कुछ राहत मिलती है। मैं बैठकर कई-कई घंटे सोचता रहता हूँ और सोचते हुए मुझे लगता है कि मेरी ज़िन्दगी का कोई मतलब नहीं है। मैं रात-दिन बसों-गाड़ियों में सफ़र करता हूँ, घटिया होटलों का गन्दा खाना खाता हूँ, और मेरे नसीब में इतना सुख भी नहीं बदा कि अपनी शामें ही चन्द दोस्तों या अपने घर के लोगों के बीच बिता सकूँ। बीवी-बच्चों की मुहब्बत भी मेरे लिए जैसे एक ख़याली-सी चीज़ है। और इस सबके बारे में सोचते हुए मन इतना परेशान हो उठता है कि मैं अपने-आपसे भाग खड़ा होना चाहता हूँ। आज शाम उस पहाड़ी पर बैठा हुआ मैं यही सोच रहा था कि

शाम-भर के लिए एक आदमी को मैं अपना साथी बनाता हूँ, उसके साथ कुछ वक़्त बिताकर मुझे खुशी हासिल होती है, पर आनेवाली दूसरी शाम के लिए मैं उसके साथ की उम्मीद नहीं कर सकता। आज तुम मेरे साथ हो, पर कल मैं चिकमंगलूर चला जाऊँगा और तुम कनानोर। एक बार की बात हो तो आदमी बर्दाश्त भी कर ले। पर मेरी तो रोज़-रोज़ की ज़िन्दगी ही यह है। इसके अलावा...।"

उसने फिर एक बार मेरी तरफ़ देखा और पलकें झुकाकर घास पर आँखें टिकाये बोला, "इसके अलावा एक बात और भी है। मैं अपनी बीवी से बहुत मुहब्बत करता हूँ और जानता हूँ कि वह भी मुझसे उतनी ही मुहब्बत करती है। फिर भी...।"

वह बोलते-बोलते रुक गया। मैं चुप रहकर उसकी तरफ़ देखता रहा। कुछ देर असमंजस में रहकर कि आगे बात करें या नहीं, वह बोला, "तुम समझ ही सकते हो इतना-इतना अरसा घर से दूर रहकर आदमी कैसा महसूस कर सकता है-खास तौर से जब उसे इस तरह की अकेली ज़िन्दगी बसर करनी पड़ती हो। मुझे कभी-कभी अपनी नसों में एक तूफ़ान-सा उठता महसूस होता है। उस वक़्त मुझे लगता है कि मेरी सूरत एक पागल की-सी नज़र आ रही होगी। मेरे मन में कई तरह के ख़याल उठने लगते हैं। कभी सोचता हूँ कि यह सिर्फ़ एक जिस्मानी ज़रूरत है जिसे पूरी कर लेने में कोई हर्ज़ नहीं। फिर सोचता हूँ कि जिस्मानी ज़रूरत सिर्फ़ मरद को ही नहीं, औरत को भी तो उसी तरह महसूस होती है। ऐसे में मेरे मन में यह सवाल शैतान की तरह सिर उठाने लगता है कि जब मरद के लिए इस ज़रूरत पर क़ाबू पाना इतना मुश्किल है, तो औरत के लिए भी क्या वैसा ही नहीं होगा? और तब मेरे दिमाग़ पर हथौड़े चलने लगते हैं कि मुझे क्या पता है, मैं कैसे कह सकता हूँ? मैं जानता हूँ कि यह फ़क़त मेरे अन्दर की कमज़ोरी है। मेरी बीवी मुझसे बेहद प्यार करती है और जब भी मैं घर जाता हूँ हमेशा यही कहती है कि मैं यह नौकरी छोड़ दूँ, और बच्चों के पास घर पर ही रहूँ। फिर भी मैं अपने वहम से बच नहीं पाता। मैं जितना अपने को ऐसे ख़यालात के लिए कोसता हुँ, ये उतना ही मुझे और तंग करते हैं।

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    अनुक्रम

  1. प्रकाशकीय
  2. समर्पण
  3. वांडर लास्ट
  4. दिशाहीन दिशा
  5. अब्दुल जब्बार पठान
  6. नया आरम्भ
  7. रंग-ओ-बू
  8. पीछे की डोरियाँ
  9. मनुष्य की एक जाति
  10. लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
  11. चलता जीवन
  12. वास्को से पंजिम तक
  13. सौ साल का गुलाम
  14. मूर्तियों का व्यापारी
  15. आगे की पंक्तियाँ
  16. बदलते रंगों में
  17. हुसैनी
  18. समुद्र-तट का होटल
  19. पंजाबी भाई
  20. मलबार
  21. बिखरे केन्द्र
  22. कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
  23. बस-यात्रा की साँझ
  24. सुरक्षित कोना
  25. भास्कर कुरुप
  26. यूँ ही भटकते हुए
  27. पानी के मोड़
  28. कोवलम्
  29. आख़िरी चट्टान

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