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यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक

आखिरी चट्टान तक

मोहन राकेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7214
आईएसबीएन :9789355189332

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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त

"आज तुम्हारे चले आने के बाद मैं काफी देर वहाँ बैठा रहा। यही परेशानी फिर मेरे दिमाग़ में घर किये थी। जब वहाँ से चला, तो ख़याल था कि खाने के वक़्त तक होटल में पहुँच जाऊँगा। पर रास्ते में एक आदमी धीमी आवाज़ में कुछ कहता मेरे पास से निकला। मैं समझ गया कि वह किसी छोकरी का दलाल है। अपने दिमाग़ पर से मेरा काबू उठने लगा। मैंने रुककर पीछे की तरफ देखा। वह आदमी लौटकर मेरे पास आ गया। मैंने उससे बात की। वह कहने लगा कि एक प्रायवेट लड़की है, पाँच रुपये लेगी। मैं उसके साथ चल दिया। वह मुझे कई सड़कों से घुमाकर एक कच्चे रास्ते से नीचे ले गया। वहाँ दो-तीन झोंपड़ियाँ थीं। उनमें से एक के अन्दर हम पहुँच गये। अन्दर लालटेन की रोशनी में एक जवान औरत अपने बच्चे को खाना खिला रही थी। मुझे देखकर वह उठ खड़ी हुई। वह आदमी अपनी ज़बान में उससे बात करने लगा। पर तभी मेरी आँखों के सामने अपने घर का नक्शा घूम गया। मुझे ख़याल आने लगा कि मेरी बीवी तो शायद इस वक़्त वहाँ ख़ुदा से मेरी सलामती की दुआ माँग रही होगी, और मैं यहाँ इस तरह अपने को ज़लील करने जा रहा हूँ। फिर मैंने उस घर की मुफ़लिसी को देखा और मुझे अपने मुफ़लिसी के दिन याद आने लगे। मेरे साथ आया दलाल बच्चे को और उसकी थाली को उठाकर बाहर जाने लगा, तो मैंने उससे कहा कि वह बच्चे को वहीं रहने दे-पहले बाहर चलकर मेरी बात सुन ले। वह इससे थोड़ा हैरान हुआ, पर बिना कुछ कहे मेरे साथ बाहर आ गया। बाहर आकर मैंने उससे कहा कि मुझे वह लड़की पसन्द नहीं है और कहते ही झट से वहाँ से चल पड़ा। वह आदमी पक्की सड़क तक मेरे पीछे-पीछे आया। कहता रहा कि मैं पाँच नहीं देना चाहता तो चार ही रुपये दे दूँ, चार नहीं तो तीन ही दे दूँ-पर मैंने उसे कोई जवाब नहीं दिया।

"पक्की सड़क पर आकर मैं बिना रास्ता जाने एक तरफ़ को चलने लगा। मेरा पहले भी ऐसे दलालों से वास्ता पड़ा है, पर मेरा ख़ुदा जानता है कि पहले कभी मैं इस हद तक आगे नहीं गया। मैंने उसे कोई जवाब नहीं दिया, तो वह आदमी नाराज़ होकर लौट गया। मुझे उस वक़्त अपने से नफ़रत हो रही थी। सोच रहा था कि अगर मेरी ज़िन्दगी भी उसी मुफ़लिसी और तंगहाली में बीतती, तो क्या कहा जा सकता है कि मेरे घर में आज क्या हो रहा होता? अब चाहे कितनी भी परेशानी है, पर वह तंगहाली तो नहीं है। किसी तरह शराफ़त की ज़िन्दगी तो जी रहे हैं। लेकिन कुछ दूर आकर मेरे दिमाग़ में फिर वही बात सिर उठाने लगी कि आखिर मैं उस हद को हाथ तो लगा ही आया हूँ-क्या मर्द जिस हद तक जा सकता है, औरत उस हद तक नहीं जा सकती? इससे फिर वही ख़याली बवंडर मेरे दिमाग में उठने लगा कि मुझे क्या पता है, मैं कैसे कह सकता हूँ? तब मेरा मन होने लगा कि लौट चलूँ। अभी थोड़ा ही रास्ता आया हूँ, लौटकर वह घर ढूँढ़ सकता हूँ। एक बार मेरे क़दम उस तरफ़ को मुड़े भी। पर तभी मैंने एक गुज़रते ताँगे को रोक लिया और उसे अपने होटल का नाम बता दिया। ताँगे में बैठे हुए भी मन होता रहा कि उसे रोककर उतर जाऊँ, या वापस उसी तरफ़ ले चलूँ। पर ताँगा धीरे-धीरे दूर निकल आया और कुछ ही देर में होटल के बाहर आ उतरा।

"होटल में आकर भी मैं अपने दरवाज़े के बाहर खड़ा एक मिनट सोचता रहा। एक मन था कि दरवाज़ा न खोलूँ और वापस चला जाऊँ। वह घर नहीं तो और घर सही। पूछनेवाले कई दलाल मिल जाएँगे। पर दूसरा मन मुझे धकेलकर तुम्हारे दरवाज़े के बाहर ले गया और मैंने दरवाज़ा खटखटा दिया। उसके बाद से तुम्हारे साथ हूँ।"

उसकी आँखों में उस घटना की छाया अब भी मँडरा रही थी। मैं उसका ध्यान बँटाने के लिए और-और विषयों पर बात करने लगा।

हम काफ़ी देर वहाँ बैठे रहे। उससे पहली रात स्टीमर में ठीक से नहीं सो पाया था, इसलिए मेरी आँखें नींद से झिपी जा रही थीं। कुछ देर बाद उसे थोड़ा स्वस्थ पाकर मैंने उससे वापस चलने का प्रस्ताव किया। हुसैनी आँखें झपकाता चुपचाप उठ खड़ा हुआ और मेरे साथ चल दिया। रास्ते में वह मुझसे थोड़ा आगे-आगे चलता रहा-जैसे कि अब भी अपना पीछा करती किसी चीज़ से बचना चाह रहा हो।

सुबह जब मैं सोकर उठा, ग्यारह बज चुके थे। हुसैनी नहाकर गुसलख़ाने से लौट रहा था। मुझे देखकर वह मुस्करा दिया। उसके चेहरे पर हमेशा का ख़ुशदिली का भाव लौट आया था।

"नींद पूरी हो गयी?" खिड़की के जँगले से अन्दर देखते हुए उसने पूछा।

"हाँ, हो ही गयी।"

"तो नहाकर तैयार हो जाओ। आज मैं तुम्हारी दावत कर रहा हूँ।"

मैं पल-भर उसे देखता रहा। फिर मैं भी मुस्करा दिया। "उन पाँच रुपयों की?'3 मैंने पूछा।

"नहीं," वह अपने उभरे दाँत उघाड़कर बोला। "वे पाँच रुपये तो मिठाई के लिए घर बीवी को भेज रहा हूँ। दावत का एक रुपया तुम्हारा नज़राना है। नहा लो, तो उधर मेरे कमरे में आ जाना।" और आँखों में वही अपनी ख़ास चमक लाकर मुस्कराता हुआ वह खिड़की के पास से हट गया।

हुसैनी जो बात कह गया था, उससे मुझे मोपासाँ की कहानी 'सिग्नल' का अन्त याद हो आया और मैं मन-ही-मन मुस्करा दिया। पर सोचा कि हुसैनी ने वह कहानी भला कहाँ पढ़ी होगी!

 

 

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    अनुक्रम

  1. प्रकाशकीय
  2. समर्पण
  3. वांडर लास्ट
  4. दिशाहीन दिशा
  5. अब्दुल जब्बार पठान
  6. नया आरम्भ
  7. रंग-ओ-बू
  8. पीछे की डोरियाँ
  9. मनुष्य की एक जाति
  10. लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
  11. चलता जीवन
  12. वास्को से पंजिम तक
  13. सौ साल का गुलाम
  14. मूर्तियों का व्यापारी
  15. आगे की पंक्तियाँ
  16. बदलते रंगों में
  17. हुसैनी
  18. समुद्र-तट का होटल
  19. पंजाबी भाई
  20. मलबार
  21. बिखरे केन्द्र
  22. कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
  23. बस-यात्रा की साँझ
  24. सुरक्षित कोना
  25. भास्कर कुरुप
  26. यूँ ही भटकते हुए
  27. पानी के मोड़
  28. कोवलम्
  29. आख़िरी चट्टान

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