यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
समुद्र-तट का होटल
दूसरे दिन मैंने मंगलूर से कनानौर (कण्गूर) की गाड़ी पकड़ ली। शिमला में जिस व्यक्ति ने मुझ कनानौर में रहने की सलाह दी थी, उसने यह भी कहा था कि वहाँ समुद्र-तट पर एक छोटा-सा होटल है जो काफ़ी सस्ता है और कि वहाँ के डाइनिंग हॉल में बैठकर चाय पीते हुए आदमी समुद्र के क्षितिज से गुज़रते जहाज़ों को देख सकता है। मेरे दिमाग़ में वह नक्शा इस तरह से जमा था कि वहाँ पहुँचने से पहले ही मैं अपने को उस रूप में वहाँ बैठे और चाय की चुस्कियाँ लेते देख रहा था।
मंगलूर से कनानौर तक की यात्रा में मैंने देखा कि रेल की पटरी के दोनों ओर थोड़े-थोड़े अन्तर पर बने घरों की श्रृंखला इस तरह चली चलती है कि तय नहीं किया जा सकता कि एक बस्ती कहाँ समाप्त हुई और दूसरी कहाँ से शुरू हुई। सारा प्रदेश ही जैसे एक बहुत बड़ा गाँव है जिसमें नारियल के पेड़ों से घिरे छोटे-छोटे घर एक-दूसरे से थोड़े-थोड़े फ़ासले पर बने हैं। बीच में खेत हैं। कहीं खेतों में (शायद पक्षियों को डराने के लिए) बाँस पर लटकाया गया कपड़े का गुड्डा दिखाई दे जाता, कहीं कोई ग्राम-देवता और कहीं बिजली के तारों पर बैठे तोतों की पंक्तियाँ। जब गाड़ी समुद्र-तट के साथ-साथ चलती, तो समुद्र पर उड़ते कडल काक (सीगल) और दूसरे पक्षी ध्यान खींच लेते। एक घर के बाहर लगी दीवार घड़ी, नेत्रावली नदी का नन्हा-सा हरा-भरा द्वीप, बैक वार्टज़ में किनारे के पास एक-एक फुट पानी में पेट के बल लेटकर बात करते नवयुवक, छतरियों-जैसी टोपियाँ पहने नाविक, टोकरियाँ उठाये खेतों में से गुज़रती नवयुवतियाँ...चलती गाड़ी से दिखते इस साधारण जीवन में भी मुझे एक असाधारणता प्रतीत हो रही थी-क्योंकि मेरी दृष्टि एक निवासी की नहीं, एक यात्री की थी।
कनानोर, पहुँचने पर पता चला कि वहाँ समुद्र-तट पर एक ही होटल है-चोईस। मैं स्टेशन से सीधा वहीं चला गया। वह एक यूरोपियन होटल था, जहाँ अक्सर रिटायर्ड यूरोपियन अफ़सर अपनी खोयी हुई सेहत वापस लाने के लिए हफ्ता-हफ्ता दो-दो हफ्ते आकर ठहरते थे। वहीं से पता चला कि समुद्र-तट पर एक और होटल भी था (और शायद उसी के विषय में मुझे बतलाया गया था) जो दो साल पहले बन्द हो चुका था। चोईस काफी महँगा होटल था और मैं अपने दो महीने के बजट से वहाँ कुल बीस दिन रह सकता था। पर मैंने उस समय वहाँ एक कमरा ले लिया। सोचा कि आगे की बात चाय पीकर आराम से तय करूँगा।
चोईस होटल ठीक वैसी जगह नहीं था जैसी मैं चाहता था। वह खुले बीच पर नहीं, तट के ऊँचे कगार पर बना था। आगे एक छोटा-सा लॉन था, जिसकी मुँडेर के पास खड़े होकर नीचे समुद्र की तरफ़ झाँका जा सकता था। पर मैं ऐसी जगह चाहता था जहाँ से सीधे जाकर समुद्र की लहरों को अपने पर लिया जा सके और जिसकी सीढ़ियों पर बैठकर अपनी ओर बढ़ते ज्वार की प्रतीक्षा की जा सके।
चोईस में अपने कमरे के बरामदे में बैठकर चाय पीते हुए भी मैं आगे के लिए कुछ निश्चय नहीं कर सका। दुविधा थी कि क्या पता है और कहीं जाकर भी वैसी ही समस्या का सामना नहीं करना पड़ेगा? आख़िर सोचा कि थोड़ी देर बाहर घूम जाऊँ-आकर तय करूँगा कि कल की क्या योजना होगी।
होटल से सटा हुआ एक यूरोपियन क्लब था। क्लब के इस तरफ़ थोड़े-से घर थे और खुला कगार। मैं टहलता हुआ कगार के सबसे ऊँचे हिस्से पर चला गया। वहाँ एक चट्टान पर खड़े होकर देखा कि तीस-चालीस फुट नीचे खुला बीच है जो दूर तक चला गया है। एक छोटा-सा बीच बायीं ओर भी है। बड़े बीच पर बहुत-से लोग थे। छोटे बीच पर एक यूरोपियन परिवार के पाँच-छह लोग स्विमिंग् कास्ट्यूम पहने लहरों में उछल-कूदकर रहे थे। उतनी ऊँचाई से उस दृश्य को देखना ज़मीन से ऊपर उठकर ज़मीन को देखने की तरह था। दूर एक जहाज़ समुद के अर्द्ध गोलाकार क्षितिज पर दायीं ओर से दाख़िल हो रहा था। वह भी जैसे मुझसे नीचे की दुनिया के रंगमंच पर ही चल रहा था। छपाक-एक लहर कगार की चट्टानों से ज़ोर से टकरायी। मैं नीचे बड़े बीच पर जाने के लिए चट्टानों पर से कूदने लगा।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान