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आखिरी चट्टान तक

मोहन राकेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7214
आईएसबीएन :9789355189332

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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त

"कोब्रा!" दो चट्टानें उतरते ही किसी को कहते सुना। जिस चट्टान पर मैं था, उससे थोड़ा हटकर साथ की चट्टान पर एक साँप रेंग रहा था। कई लोग से दूर उसे देख रहे थे। वह गहरे मोतिया रंग का साँप था। शरीर पर काले रंग की हल्की-हल्की धारियाँ। वह बहुत सतर्क होकर चल रहा था-शायद मन में वह आसपास से सुनाई देती आवाज़ों से आतंकित था। मैं अपनी चट्टान पर जहाँ का तहाँ रुककर उसे देखता रहा। उसका शरीर चट्टान पर उसी तरह बहता लग रहा था जैसे बने हुए रास्ते पानी की पतली धार। रास्ते का निर्णय करने के लिए उसका फण ज़रा-सा मुड़ता, फिर बाक़ी शरीर उसी रास्ते से निकल जाता। एक लड़के ने उसकी तरफ़ पत्थर फेंका। उसने एक बार फण उठाया, पर अगले ही क्षण दो चट्टानों के बीच की मिट्टी में गुम हो गया।

मैं फिर चट्टानों पर से कूदने लगा, और दिमाग में साँप की सी सतर्कता लिये एक पोखर पर बने टूटे पुल से होकर बीच पर पहुँच गया।

सामने समुद्र की लहरें बड़ी-बड़ी शार्क मछलियों की तरह सिर उठा रही थीं। कुछ मछुए साथ मिलकर दो डूँगों को पानी की तरफ़ धकेल रहे थे। डूँगे धीरे-धीरे सरक रहे थे और रेत पर गहरी लकीरें खिंचती जा रही थीं। एक डूँगा पानी में पहुँच गया और सामने से आती लहर पर सवार होकर परे निकल गया। फिर दूसरी लहर पर सवार होकर काफ़ी आगे चला गया। दसरा डूँगा भी तब तक पानी में पहुँच गया था। वह एक पिछड़े साथी की तरह तेज़ी से लहरों को पार करता कुछ पलों में ही पहले डूँगे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ गया।

ऊपर कगार की चट्टानों पर कुछ लोग खड़े हुए थे जिनकी आकृतियाँ सूर्यास्त की झिलमिल में स्याह पत्थर की मूर्त्तियों-जैसी लग रही थीं। बीच से देखने पर अब मुझे ऊपर की दुनिया अपने से दूर और अलग प्रतीत हो रही थी। कुछ लोग चट्टानों पर से कूदते हुए नीचे आ रहे थे। मेरा मन हुआ कि मैं फिर से ऊपर चला जाऊँ और फिर से उसी तरह कूदता हुआ नीचे आऊँ। परन्तु मैं उस समय नंगे पैर टखने-टखने पानी में खड़ा था और लहरों के लौटने पर पैरों के नीचे से सरकती रेत शरीर में एक चुनचुनाहट भर रही थी। इसलिए मैं उसी तरह वहाँ खड़ा स्पर्धा से लोगों को चट्टानों से कूदकर आते देखता रहा।

पानी में सूर्यास्त के कई-कई हल्के-गहरे रंग झिलमिला रहे थे। ताँबई, बैंजनी, कत्थई। किनारे की तरफ़ आती हर लहर के आगे झाग की सफ़ेद जाली बन जाती थी जो लहर के लौट जाने पर भी कछ देर बनी रहती थी। बढ़ता पानी सूखी रेत को भिगो जाता, परन्तु पानी के लौटते ही रेत फिर सूखने लगती। पानी उसे फिर भिंगो जाता और कितने ही केंकड़े उछलते हुए आकर रेत में सूराख़ करके उनमें दुबक जाते। टिर-री, टिर-री-यह स्वर सारे वातावरण में फैल रहा था। मुझे लगा कि वास्तव में ऐसे ही समय और वातावरण को साँझ कहा जा सकता है। दिल्ली-जैसे शहर में कभी साँझ नहीं होती। वहाँ समय के केवल दो ही चेहरे होते हैं-दिन और रात। या एक ही चेहरा-आधा स्याह, आधा सफेद।

एक बूढ़ा लुँगी पर पेटी बाँधे, सिगरेट सुलगाये, छड़ी हिलाता टखने-टखने पानी में चल रहा था। कुछ लड़कियाँ अपने पेटीकोट पिंडलियों तक उठाकर किनारे की ओर आती लहरों के ऊपर से उछल रही थीं। उधर छोटे बीच की तरफ़ से यूरोपियन परिवार के किलकारने की आवाजें आ रही थीं।

मैं सोच रहा था कि बजट का चाहे जो हो, मैं कुछ दिन ज़रूर कनानौर में रहूँगा।

वापस होटल में पहुँचा, तो देखा कि मेरे आसपास के दोनों कमरे उस बीच लग गये हैं। वे दोनों कमरे एक ही परिवार ने ले लिये थे। उस समय लॉन में पति-पत्नी अपने चार बच्चों के साथ 'दाई-छू' खेल रहे थे। सामने के कमरे में एक बूढ़ी मेम, जो गठिये की मरीज़ थी, अपनी नौकरानी के साथ ठहरी थी। वह अपने कमरे के बाहर खड़ी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर उन लोगों को शाबाशी दे रही थी।

रात को वह बूढ़ी मेम अपनी नौकरानी के साथ उन लोगों के यहाँ ताश खेलने आ गयी। मुझे हर दो मिनट के बाद उसकी चीख़ती आवाज़ में 'गुड ग्रेशस', 'ओ माई लॉर्ड' और 'वट ए हैंड'-जैसे शब्द और एक मोटी धार के पाइप के सहसा खुलकर बन्द हो जाने-जैसी हँसी सुनाई देने लगी, तो मैंने सोचा कि वहाँ रहकर अपना बज़ट ख़राब करने का कोई मतलब नहीं-मुझे चुपचाप बिस्तर बाँधकर अगली सुबह वहाँ से चल देना चाहिए।

 

* * *

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    अनुक्रम

  1. प्रकाशकीय
  2. समर्पण
  3. वांडर लास्ट
  4. दिशाहीन दिशा
  5. अब्दुल जब्बार पठान
  6. नया आरम्भ
  7. रंग-ओ-बू
  8. पीछे की डोरियाँ
  9. मनुष्य की एक जाति
  10. लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
  11. चलता जीवन
  12. वास्को से पंजिम तक
  13. सौ साल का गुलाम
  14. मूर्तियों का व्यापारी
  15. आगे की पंक्तियाँ
  16. बदलते रंगों में
  17. हुसैनी
  18. समुद्र-तट का होटल
  19. पंजाबी भाई
  20. मलबार
  21. बिखरे केन्द्र
  22. कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
  23. बस-यात्रा की साँझ
  24. सुरक्षित कोना
  25. भास्कर कुरुप
  26. यूँ ही भटकते हुए
  27. पानी के मोड़
  28. कोवलम्
  29. आख़िरी चट्टान

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