यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
पंजाबी भाई
परन्तु अगले दिन वहाँ सेवॉय होटल में मैंने महीने-भर के लिए जगह ले ली-तीस रुपये में तीस दिन के लिए उतनी अच्छी जगह कहीं भी मिल सकती है, इसकी मैं कल्पना तक नहीं कर सकता था। सेवॉय होटल समुद्र-तट पर नहीं था, पर तट के बहुत पास ही था। उसमें ख़ूब खुले बरामदे और बड़े-बड़े लॉन थे जिनमें दिन-भर हवा आवारा घूमती थी। इतनी सस्ती जगह होने पर भी वहाँ रहनेवाले लोग थोड़े से ही थे, इसलिए दिन-भर वहाँ का वातावरण शान्त रहता था। किसी ज़माने में वह होटल खूब चलता था और काफ़ी महँगा भी था। परन्तु स्वतन्त्रता के बाद वहाँ आकर रहनेवालों की संख्या बहुत कम हो गयी थी, इसलिए वहाँ से खाने का प्रबन्ध हटा दिया गया था, और कमरे महीने के हिसाब से किराये पर दिये जाने लगे थे।
सेवॉय में आने की अगली सुबह बैठकर कुछ लिख रहा था, जब एक लम्बा-सा युवक दरवाज़े के बाहर आ खड़ा हुआ।
"हलो," उसने कहा।
मैंने उसकी बेतकल्लुफ़ी से चौंककर उसकी तरफ़ देखा। वह पाजामा-कुरता पहने ढीले-ढाले ढंग से खड़ा मुस्करा रहा था।
"आइए," मैंने अनिच्छापूर्वक कुर्सी से उठते हुए कहा।
वह दहलीज़ तक आ गया। बोला, "आप शायद कल ही आये हैं!"
"जी हाँ, कल ही आया हूँ," मैंने कहा।
"मैंने रात को कमरे की बत्ती जलती देखी थी," कहते हुए उसने दहलीज़ पार कर ली। "मुझे खुशी हुई कि चलो होटल का एक कमरा और आबाद हो गया है। वैसे तो यह होटल सुनसान पड़ा रहता है। आपने देखा ही होगा।"
"फिर भी, मुझे जगह बहुत पसन्द है," मैंने दूरी बनाये रखते हुए कहा। "काफ़ी खुली और एकान्त जगह है। मैं अपने लिए ऐसी ही जगह खोज रहा था।"
"आप इधर के रहनेवाले तो नहीं लगते," वह अब और आगे आकर मेरे सामने की कुर्सी को पीठ से हिलाने लगा।
"जी नहीं, मैं उत्तर से आया हूँ," मैंने कहा।
"उत्तर के किस इलाक़े से?" और वह कुर्सी के आगे आ गया। मुझे लगा कि अब अगला सवाल पूछने तक वह जमकर कुर्सी पर बैठ जाएगा।
"मैं पंजाब का रहनेवाला हूँ," मैंने कहा।
सहसा उसकी दोनों बाँहें फैल गयीं और वह," अच्छा, तुसी साडे पंजाबी भरा ओ!" कहता हुआ मेज़ के गिर्द से आकर मुझसे लिपट गया।
साँस रोककर मैंने आलिंगन के वे क्षण बीत जाने दिये। मेरे गिर्द से बाँहें हटाकर उसने मेरा हाथ मज़बूती से अपने हाथ में ले लिया और कहा कि परदेश में एक 'पंजाबी भरा' का मिल जाना उसकी नज़र में 'रब' के मिल जाने से कम नहीं है।
"कुछ दिन रहेंगे न यहाँ?" उसने ऐसे पूछा जैसे कि मैं उसी के पास मेहमान बनकर ठहरा होऊँ।
"हाँ महीना-बीस दिन तो रहूँगा ही," मैंने कहा।
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- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान