यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
वांडर लस्ट
खुला समुद्र-तट। दूर-दूर तक फैली रेत। रेत में से उभरी बड़ी-बड़ी स्याह चट्टानें। पीछे की तरफ़ एक टूटी-फूटी सराय। ख़ामोश रात और एकटक उस विस्तार को ताकती एक लालटेन की मटियाली रोशनी...।
सबकुछ ख़ामोश है। लहरों की आवाज़ के सिवा कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती। मैं सराय के अहाते में बैठा समुद्र के क्षितिज को देख रहा हूँ। लहरें जहाँ तक बढ़ आती हैं, वहाँ झाग से एक लकीर खिंच जाती है। मेरे सामने एक बुड्ढा बैठा है। उसके चेहरे पर भी न जाने कितनी-कितनी लकीरें हैं। उसकी आँखों में भी कोई चीज़ बार-बार उमड़ आती है और लौट जाती है। हम दोनों के बीच में एक लम्बी पुरानी मेज़ है जो कुहनी का ज़रा-सा बोझ पड़ते ही चरमरा उठती है। बुड्ढे के सामने एक पुराना अख़बार फैला है। मेरे सामने चाय की प्याली रखी है। सहसा वातावरण में एक खिलखिलाहट फूट पड़ती है। एक सोलह-सत्रह साल की लड़की पास की कोठरी से आकर बुड्ढे के गले में बाँहें डाल देती है। बुड्ढा उसकी तरफ़ ध्यान न देकर उसी तरह अख़बार की पुरानी सुर्खियों में खोया रहता है। मैं चाय की प्याली उठाता हूँ और रख देता हूँ। लहरों का फेन आगे तक आकर रेत पर एक और लकीर खींच जाता है...।
एक पहाड़ी मैदान। धान और मक्की के खेतों से कुछ हटकर लकड़ी और फूस की
एक झोंपड़ी। वातावरण में ताजा कटी लकड़ी की गन्ध। ढलती धूप और झोंपड़ी की खिड़की से बाहर झाँकती साँझ...।
बेंत की टूटी कुर्सी पर बैठकर खिड़की से बाहर देखते हुए दूर तक वीरान पगडंडियाँ नज़र आती हैं। उन पर कहीं कोई एकाध ही व्यक्ति चलता दिखाई देता है। खिड़की के बाहर साँझ उतर आने पर झोपड़ी में रात घिर आती है। मैं खिड़की से हटकर अपने आसपास नज़र दौड़ाता हूँ। फ़र्श पर, मेज़ पर और चारपाई पर काग़ज़-ही-काग़ज़ बिखरे हैं जिन्हें देखकर मन उदास हो जाता है। अपना-आप बहुत अकेला और भारी महसूस होता है। लकड़ी की गन्ध से ऊब होने लगती है। साथ की झोंपड़ी से आती धुएँ की गन्ध अच्छी लगती है। मैं फिर खिड़की के पास जा खड़ा होता हूँ। पगडंडियाँ अब बिल्कुल सुनसान हैं और धीरे-धीरे अँधेरे में डूबती जा रही हैं। एक पक्षी पंख फड़फड़ाता खिड़की के पास से निकल जाता है...।
कच्चे रास्ते की ढलान। एक मोड़ पर अचानक क़दम रुक जाते हैं। नीचे, बहुत नीचे, दरिया की घाटी है। ज़हरमोहरा रंग का पानी सारस के पंखों की तरह एक द्वीप के दोनों ओर शाखाएँ फैलाये है। सारस की गर्दन दूर चीड़ के वृक्षों में जाकर खो गयी है...।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान