यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
ढलान से घाटी की तरफ़ झुके एक पेड़ के नीचे से दो आँखें सहसा मेरी तरफ़ देखती हैं। उन आँखों में सारस का विस्मय है और दरिया की उमंग। साथ एक चमक है जो कि उनकी अपनी है।
"यह रास्ता कहाँ जाता है?" मैं पूछता हूँ।
लड़की अपनी जगह से उठ खड़ी होती है। उसके शरीर में कहीं ख़म नहीं है। साँचे में ढले अंग-एक सीधी रेखा और कुछ गोलाइयाँ। आँखों में कोई झिझक या संकोच नहीं।
"तुम्हें कहाँ जाना है?" वह पूछती है।
"यह रास्ता जहाँ भी ले जाता हो...।"
वह हँस पड़ती है। उसकी हँसी में भी कोई गाँठ नहीं है। पेड़ इस तरह बाँहें हिलाता है, जैसे पूरे वातावरण को उनमें समेट लेना चाहता हो। एक पत्ता झड़कर चक्कर काटता नीचे उतर आता है।
"यह रास्ता हमारे गाँव को जाता है," लड़की कहती है। सूर्यास्त के कई-कई रंग उसके हँसिये में चमक जाते हैं।
"तुम्हारा गाँव कहाँ है?"
"उधर नीचे।" वह जिधर इशारा करती है, उधर केवल पेड़ों का झुरमुट है-वही जिसमें सारस ने अपनी गर्दन छिपा रखी है।
"उधर तो कोई गाँव नहीं है।"
"है। वहाँ, उन पेड़ों के पीछे...।"
वह क्षण-भर खड़ी रहती है-देवदार के तने की तरह सीधी। फिर ढलान से उतरने लगती है। मैं भी उसके पीछे-पीछे उतरने लगता हूँ। साँझ होने के साथ दरिया का ज़हरमोहरा रंग धीरे-धीरे बैंजनी होता जाता है। वृक्षों के साये लम्बे होकर अद्श्य होते जाते हैं। फिर भी दूर तक कहीं कोई छत, कोई दीवार नज़र नहीं आती।
कच्ची ईंटों का बना एक पुराना घर। घर में एक बुड्ढा और बुढ़िया रहते हैं। दोनों मिलकर मुझे अपने जीवन की बीती घटनाएँ सुनाते हैं। बीच-बीच में छत से एकाध तिनका नीचे गिर आता है। बुड्ढा बुढ़िया की बात काटता है कि उसे वह घटना ठीक से याद नहीं है। बुढ़िया बुड्ढे पर झुँझलाती है कि वह क्यों उसे बार-बार बीच में टोक देता है। जब उनमें से एक की बात लम्बी होने लगती है, तो दूसरे को ऊँघ आ जाती है। हवा हलके से किवाड़ खोल देती है। बाहर आग जल रही है। उसके पास बैठे कुछ व्यक्ति ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे हैं और क़समें खा रहे हैं। क्षण-भर के लिए उनकी आवाज़ें रुकती हैं, तो जंगल में दूर तक घास के सरसराने की आवाज़ सुनाई दे जाती है। तभी हवा किवाड़ बन्द कर जाती है। मेरा मन जंगल से लौटकर फिर उस घर के अतीत में भटकने लगता है।...
जब कभी मैं यात्रा पर निकलने की बात सोचता हूँ, तो ये और ऐसे कई-कई चित्र अनायास मन में उभरने लगते हैं। सम्भव है कि ये बहुत पहले पढ़ी यात्रा-पुस्तकों के किन्हीं ऐसे अंशों की छाप हों जिन्हें वैसे मैं भूल चुका हूँ। पर सोचता हूँ कि अपने अन्दर से बार-बार ऐसे चित्रों को खोज लाना, मन की यह भटकन क्या है? एक बार किसी ने इसे नाम दिया था-वांडर लस्ट। यह मेरी अपनी सीमा है कि मुझे चाहकर भी इसके लिए हिन्दी का शब्द नहीं मिल रहा। यायावर वृत्ति? परन्तु वृति लस्ट तो नहीं है। और वास्तव में यह भटकन क्या लस्ट ही है?
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान