यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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"विचारों की गहराई और यात्रा के अनुभवों का संगम : मोहन राकेश का आख़िरी चट्टान तक यात्रा-वृत्तान्त"
"पर, आखिर बात क्या है?" कहता हुआ वह अन्दर आ गया। "इसका मतलब है कि मेरा उस दिन का अन्दाज़ा ठीक था। आप ज़रूर किसी वजह से मुझसे नाराज़ हैं। आप जब तक वजह नहीं बताएँगे, मैं यहाँ से नहीं जाऊँगा।"
मैं बिना कुछ कहे और बिना उसकी तरफ़ देखे अपने सामने की पुस्तक पर आँखें जमाये रहा। वह कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा। फिर बोला, "यह कहानियों की क़िताब है?"
मैं इस पर भी चुप रहा।
"आपके पास कहानियों की और भी कोई अच्छी-सी क़िताब है?"
मैं फिर भी चुप रहा।
"आपके पास और कोई ऐसी क़िताब नहीं है?"
मैंने अब भी कोई जवाब नहीं दिया।
"अच्छा सुबह तक आप अपनी नाराज़गी दूर कर लीजिए, ऐसे मेरा मन नहीं लगता," कहकर उसने एक नज़र कमरे में चारों तरफ़ डाली, फिर धीरे-धीरे बाहर को चल दिया। फिर जैसे कुछ याद हो आने से जेब में हाथ डालकर टटोलता हुआ बोला, "यह मैं लाया था। अपने लिये ले रहा था, तो सोचा भाई साहब के लिए भी एक लेता चलूँ। ज़रूरत तो पड़ती ही रहती है," और उसने जेब से एक माचिस की डिबिया निकालकर मेरी मेज़ पर रख दी।
"इसे ले जाइए, मुझे इसकी ज़रूरत नहीं है," मैंने कहा।
"शुक्र है, बोले तो सही।" कहता हुआ वह फिर आकर मेरे सामने खड़ा हो गया। उसका कहने का ढंग ऐसा था कि मेरे लिए अपनी मुस्कराहट को रोक पाना असम्भव हो गया।
"शुक्र है, मुस्कराये तो सही।" वह दोनों हाथ हवा में झटककर बोला।" उस तरह नाराज़ बने रहते, तो मुझे रात-भर नींद न आती। यह डिबिया तो मैं इस ख़याल से ले आया कि शायद आपको ज़रूरत हो। ज़रूरत नहीं है, तो उधर काम आ जाएगी," कहते हुए उसने डिबिया उठा ली। फिर कमरे से बाहर जाते हुए उसने कहा कि मेरे मन में अब भी कोई बात हो, तो उसे मैं मन से निकाल दूँ, उसका मन मेरी तरफ़ से बिल्कुल साफ़ है।
तीन-चार दिन यही हाल रहा। मैं उससे बात करने से बचता। पर वह बीच-बीच में आकर इसी तरह मेरे पास बैठ जाता और दो-चार बातें करके, और-और कुछ हाथ न लगे, तो थोड़ी-सी चीनी ही फाँककर चला जाता। कभी-कभी उसका वह दाँव भी चल जाता, "अच्छा, केले की ख़ुशबू आ रही है, केले आये हैं।"
आख़िर उसका जाने का दिन आ गया। मैं दोपहर को खाना खाकर लौटा, तो देखा उसका सामान बँध चुका है। धनंजय शौकत से सामान उठवाकर ताँगे में रखवा रहा था। कपूर मुझे देखते ही बाँहें फैलाये मेरे पास आ गया। बोला, "मैं इन्तज़ार ही कर रहा था कि भाई साहब आयें, तो स्टेशन चलें।"
मैंने अपने कमरे का दरवाज़ा खोलकर अन्दर दाखिल होते हुए कहा कि धूप बहुत तेज़ है इसलिए मैं उसके साथ स्टेशन तक नहीं चल सकूँगा। वह भी मेरे साथ ही कमरे में आ गया और मेज़ के पास रुककर बोला, "ठीक है, आपको तकलीफ़ उठाने की ज़रूरत नहीं।" फिर मेज़ पर रखी एक पुस्तक को उठाकर दोनों तरफ़ से देखते हुए उसने कहा, "यह किताब मैं रास्ते में पढ़ने के लिए ले जा रहा हूँ। दिल्ली से आपको बुकपोस्ट से भेज दूँगा।"
और बिना मुझे कुछ कहने का मौक़ा दिये पहले दिन की तरह फिर एक बार मुझे बाँहों में भींचकर वह दरवाज़े की तरफ बढ़ गया। मैंने तब बाहर निकलकर उससे कहा कि मैं भी थोड़े दिनों में वहाँ से चला जाऊँगा, इसलिए वह पुस्तक मैं उसे नहीं ले जाने दे सकता। धनंजय और शौकत तब तक ताँगे में पिछली सीट पर बैठ गये थे। वह जाकर अगली सीट पर बैठता हुआ बोला, "आप फ़िक्र न करें मैं किताब आपको बंगलोर से ही भेज दूँगा।"
और गहरी आत्मीय भावना के साथ आँखें मूँदकर उसने हाथ जोड़ दिये। कहा, "दास से कोई भूल-चूक हुई हो, तो माफ़ कर देना। और कभी-कभार याद कर लिया करना।"
तब तक ताँगा चल दिया।
उस शाम धनंजय फिर मुझे होटल में मिल गया। हम फिर साथ-साथ समुद्र-तट पर टहलने निकले गये। वहाँ बैठकर उँगलियों से रेत पर लकीरें खींचते हुए उसने कहा, "पता नहीं मेरे पैसे भेजता है या नहीं। कह तो गया है कि जल्दी ही भेज देगा। मैं इसीलिए उसे स्टेशन तक छोड़ने गया था कि मेरी तरफ से उसका दिल बिल्कुल साफ़ रहे। मैंने ख़ुद ही उससे कह दिया है कि दस-बीस दिन में जब भी उसे सुविधा हो, भेज दे। इस तरह मैंने सोचा कि शायद भेज भी दे। नहीं तो ऐसे आदमी का क्या पता है?"
मैं कुहनियाँ रेत पर टिकाये लेटा उमड़ती लहरों का खेल देखता रहा। धनंजय आशापूर्ण दृष्टि से आकाश को ताकता रेत पर लकीरें खींचता रहा।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान