यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
जिस होटल में मैं खाना खाने जाता था, वहीं धनंजय नाम का एक और युवक भी आया करता था। उसे दो-एक बार मैंने कपूर के कमरे में देखा था। एक शाम मैं होटल से खाना खाकर निकला, तो वह मेरे साथ-साथ बाहर आ गया। मेरा इरादा समुद्र-तट पर टहलने जाने का था। उसने कहा कि वह भी उसी तरफ़ चल रहा है। हम दोनों समुद्र-तट पर पहुँच गये। उसके चेहरे से लग रहा था कि वह मुझसे कोई खास बात करना चाहता है। कुछ देर बाद संकोच हटाकर उसने पूछ लिया कि कपूर वहाँ से कब जा रहा है।
"पता नहीं," मैंने कहा। "वह रोज़ यही कहता है कि चार-पाँच रोज़ में जा रहा है।"
धनंजय रेत के गीले भागों से बचता कुछ देर चुपचाप मेरे साथ चलता रहा। फिर हिचकिचाते हुए उसने बतया कि कपूर की तरफ उसके कुछ रुपये निकलते हैं और वह चिन्तित है कि कहीं वह आदमी उसके रुपये मार तो नहीं लेगा।
"कितने रुपये हैं?" मैंने पूछा।
"पचास।"
"वह इस बारे में क्या कहता है?"
"कहता है लुधियाना पहुँचते ही भेज दूँगा।"
उसने यह भी बतलाया कि जिन दिनों रूबी कपूर के पास आया करती थी, उन्हीं दिनों कपूर ने उससे वे रुपये लिये थे। कहा था कि रूबी को ज़रूरत है, कि उसके अपने रुपये व्यापारियों से आठ-दस दिन में मिलेंगे, कि यह उसके प्रेम का सवाल है, और कि वही उसका एक ऐसा दोस्त है जिससे वह माँग सकता है। धनंजय की बातों से लगा कि कपूर ने रूबी से उसकी दोस्ती कराने का भी वादा किया था, पर वह वादा उसने पूरा नहीं किया। कपूर ने उससे यह भी कह रखा था कि मैं उसका पुराना दोस्त हूँ और कि मेरे वहाँ रहते उसे अपने रुपये की चिन्ता बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। मैंने धनंजय को अपनी स्थिति समझायी, तो उसका चेहरा उतर गया। गीली रेत से बचकर चलने का उसे ध्यान नहीं रहा। वह मुरझाये हुए स्वर में बोला, "देखिए मैं रुपये की उतनी परवाह नहीं करता। पर उसे मेरे-जैसे भले आदमी के साथ इस तरह का सलूक करना नहीं चाहिए।"
मैं उसकी बात पर मन-ही-मन मुस्करा दिया। अपने से ज्यादा मुझे उससे हमदर्दी हुई। यह इसलिए भी कि कुछ क़दम चलते-चलते एक जगह फिसलकर उसने कपड़े ख़राब कर लिये।
समुद्रतट से लौटकर मैंने बटलर के हाथ कपूर के पास चिट भेज दी कि मैं कुछ दिन अकेले में काम करना चाहता हूँ, इसलिए उसकी मेहरबानी होगी अगर वह इसके बाद मेरे कमरे में आने की तकलीफ़ न करे। मगर थोड़ी ही देर में शौकत ने आकर कहा कि साहब उधर बुला रहे हैं। मैंने शौकत को वापस भेज दिया और चुपचाप अपना काम करता रहा। कुछ देर बाद कपूर, खुद चला आया और दरवाज़े के पास रुककर बोला, "भाई साहब, आपने लिखा है कि मैं आपके कमरे में न आया करूँ। पर आपको मेरे कमरे में आने में तो कोई एतराज़ नहीं है न?
मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था। मैंने खिझलाये स्वर में उससे कहा कि, "मैं अपने काम के वक़्त किसी की उस तरह की दख़ल-अन्दाज़ी पसन्द नहीं करता, इसलिए उस वक़्त उससे बात नहीं कर सकता।"
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान