यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
रूबी बीच-बीच में उससे एक-एक दो-दो रुपये उधार ले लेती थी और उसके सिकन्दराबाद जाने तक कपूर की डायरी में उसके नाम चौदह रुपये हो गये थे। वह जाते हुए कह गयी थी कि सिकन्दराबाद पहुँचते ही अपने बैंक से निकलवाकर भेज देगी, पर दो महीने होने को आये थे और उसने रुपये भेजना तो दूर, अपने किसी पत्र में उस कर्ज़ का ज़िक्र तक नहीं किया था। महीना-भर पहले उसने लिखा था कि वह उसके लिए दो बेड-कवर काढ़कर भेज रही है, मगर बाद के पत्रों
में उनका भी जिक्र नहीं था। अब कपूर चाहता था कि उसे ऐसा पत्र लिखा जाए जिसमें रुपयों की बात आ भी जाए और रूबी को यह महसूस भी न हो कि उसने यह बात लिखी है क्योंकि वह सीधे-सीधे रुपये माँगकर अपने प्रेम-सम्बन्ध पर आँच नहीं आने देना चाहता था।
"बताइए, यह सब किस तरह लिखा जाए?" सारा क़िस्सा सुनाने के बाद उसने पूछा।
मैंने उससे कहा कि, मैं इस मामले में कोई राय नहीं दे सकता। वह अपनी प्रेमिका को जानता है, इसलिए वही ठीक से सोच सकता है कि उसे क्या बात किस तरह लिखनी चाहिए। इस पर कपूर ने मेरा हाथ हौले से दबा दिया और धीमे स्वर में कहा कि, मैं इतनी ऊँची आवाज़ में उसकी प्रेमिका का ज़िक्र न करूँ। वहाँ के लोग दक़ियानूसी ख़यालातों के हैं। वे भावना की बात का भी गन्दा मतलब ले सकते हैं।"
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उसे किस तरह टाला जाए। आखिर मैंने उससे कहा कि इस विषय में मुझे थोड़ा सोचना होगा। इस समय मुझे कुछ अपना काम करना है, इसलिए...। इस पर वह उठता हुआ बोला, "हाँ-हाँ, आप काम कीजिए। वैसे मैं भी इस बारे में सोचूँगा। आप भी सोचिए। शाम को दोनों साथ बैठकर ड्राफ्ट बना लेंगे। मैं कल चिट्ठी ज़रूर पोस्ट कर देना चाहता हूँ, क्योंकि उसे अपना लुधियाना का पता भी देना है।"
और मुझसे यह अनुरोध करके कि मुझे बाज़ार का कोई काम हो तो शौक़त से करा लूँ, तकल्लुफ़ में न रहूँ, वह अपने कमरे में चला गया।
उस शाम से मैंने खाने का प्रबन्ध पास के एक होटल में कर लिया। नाश्ता अपने कमरे में तैयार करने के लिए आवश्यक सामान भी खरीद लाया। कपूर को इसका पता चला, तो पहले दिन तो उसने आकर शिकायत की कि मैं उसकी चीज़ों को अपनी चीज़ें क्यों नहीं समझता और यूँ ही इतने पैसे क्यों बर्बाद कर आया हूँ। मगर दूसरे दिन से वह मेरे कमरे में आ-आकर ऐसे-ऐसे करतब करने लगा, "आपकी अलमारी में डबलरोटी रखी है, ज़रा मक्खन का डिब्बा तो निकालिए, दो स्लाइस काटकर खा लूँ, अब इस वक़्त रोटी कौन बनाये!" या "आज दाढ़ में दर्द है, कुछ खाया नहीं जाएगा। सोचता हूँ थोड़ा-सा दूध पी लेना ही ठीक रहेगा। मैंने तो मँगवाया नहीं, आपके दूध में से ले रहा हूँ आप उतने दूध की जगह एक स्लाइस और खा लीजिएगा।" या "सेब आये हैं सेब? ज़रा चखकर तो देखें।" या फिर "शौकत आपके बिस्किट लाया था और उधर रखकर पान लाने चला गया था। दो दोस्त बैठे थे, उन्होंने चाय के साथ ले लिये। आपके लिए शौकत से और लाने को कह दिया है।" और ये और भी उसने शौकत से उन्हीं पैसों में से लाने को कह दिया था जो मैंने उसे दे रखे थे। इसके अलावा मेरे कमरे में आ बैठने के उसके पास सौ बहाने थे। "इतनी-इतनी देर आपका अकेले मन कैसे लग जाता है?" या "पंजाब के शहरों में शाम को कितनी रौनक होती है, पर यहाँ देखिए न...।" या फिर "लाइए दो-चार सफ़े मैं साथ लगकर लिखवा दूँ। अकेले लिखते थक गये होंगे।"
मैंने तय कर लिया कि मैं उसके पास एक चिट लिखकर भेज दूँगा कि वह मेरे कमरे में न आया करे।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान