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यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक

आखिरी चट्टान तक

मोहन राकेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7214
आईएसबीएन :9789355189332

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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त

मैंने अब अपने स्वर को थोड़ा सँभाल लिया। "मैंने आपसे ऐसी कोइ बात नहीं कही जिससे लगे कि मैं नाराज़ हूँ।"

"नहीं हैं न नाराज़?" वह बोला। "मैंने अच्छा किया जो पूछ लिया। मेरे मन का वहम निकल गया। मैं सोच रहा था कि मैं तो भाई साहब की इतनी क़द्र करता हूँ, इन्हें अपने सगे भाई की तरह मानता हूँ फिर इनके चेहरे से क्यों लग रहा है जैसे ये मुझसे नाराज़ हैं? चलो मेरी तसल्ली हो गयी।"

फिर जैसे मुझ पर उपकार करके उसने उठते हुए कहा, "मैं तो भाई साहब इन्सानियत के नाते किसी के लिए भी कुछ भी करने को तैयार रहता हूँ। आप तो फिर अपने पंजाब के हैं। मेरी इतनी ही प्रार्थना है मुझे हर वक़्त अपना दास समझें और सेवा का मौक़ा देते रहें।"

एक बार दहलीज़ पार करके वह फिर लौट आया। बोला, "देखिए, मुझे आपसे थोड़ा-सा निजी काम है। पर मैं उस वक़्त आपको बताऊँगा। जिस वक़्त आप ख़ाली होंगे। आप कब तक पढ़ते रहेंगे?"

"जब तक नींद नहीं आती," मैंने कहा।

"तो सोने से पहले मुझे आवाज़ दे लीजिएगा," वह चलता हुआ बोला। "वैसे मैं भी एक बार आकर देख जाऊँगा।"

मगर उस रात उसे मौक़ा नहीं मिला क्योंकि जब तक वह देखने के लिए आया, तब तक मेरे कमरे की बत्ती बुझ चुकी थी। अगले दिन सुबह मैं अख़बार देख रहा था, तो वह फिर आ पहुँचा और बोला, "इस वक़्त आप ख़ाली हैं?"

मैंने कुछ न कहकर अख़बार सामने से हटा दिया।

वह बैठ गया और जेब से एक चिट्ठी निकालकर बोला, "मैं इस चिट्ठी का जवाब आपसे लिखवाना चाहता हूँ।"

मेरा एक तो मन हुआ कि उसे कमरे से निकल जाने को कह दूँ, और दूसरा कि ज़ोर से ठहाकर लगाऊँ। पर वह इस तरह कबूतर की नज़र से मुझे देख रहा था कि मैं ये दोनो काम न करके सिर्फ़ मुस्कराकर रह गया। मैंने उसे समझाना चाहा कि मैं चिट्ठी लिखने की कला का विशेषज्ञ नहीं हूँ, सिर्फ कभी-कभार कहानी-वानी लिख लेता हूँ। पर उसने मेरी बात जैसे सुनी ही नहीं। बोला कि वह एक ख़ास चिट्ठी है जो उसकी प्रेमिका रूबी ने उसे सिकन्दराबाद से लिखी है, और क्योंकि वह मुझे सबसे विश्वस्त मित्र मानती है, इसलिए मुझे कम-से-कम इतनी राय तो उसे देनी ही चाहिए कि वह किस तरह उत्तर लिखे जिससे सारी बात उसमें आ जाए।

और वह सारी बात यह थी कि रूबी की तरफ़ उसके चौदह रुपये निकलते थे। वह इस तरह पत्र लिखना चाहता था कि रूबी पर उसके प्रेम का प्रभाव भी बना रहे और उसकी रक़म भी वापस आ जाए।

रूबी पहले उसी होटल में उसके कमरे से दो कमरे छोड़कर अपने भाई-भावज के साथ रहती थी। कपूर का विश्वास था कि वह चाहता तो ननद और भावज दोनों से प्रेम-सम्बन्ध स्थापित कर सकता था, पर उसने अपने को गिरने नहीं दिया और केवल रूबी को ही प्रेम के लिए चुने रहा। रूबी से भी वह दूर-दूर से ही प्रेम करना चाहता था, पर रूबी कुछ इस तरह उस पर मरने लगी थी कि उसके लिए अपने प्रेम की पवित्रता बनाये रखना असम्भव हो गया था। एक रात (जबकि भूल से पीछे का दरवाजा खुला रह गया था), रूबी चुपके से उसके कमरे में चली आयी थी और उसे न चाहते हुए भी (क्योंकि बाहर बारिश होने लगी थी) अपने को रूबी की इच्छा पर छोड़ देना पड़ा था। उसके बाद जितने दिन रूबी वहाँ रही, दरवाज़ा खुला रहने की भूल दोहरायी जाती रही।

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    अनुक्रम

  1. प्रकाशकीय
  2. समर्पण
  3. वांडर लास्ट
  4. दिशाहीन दिशा
  5. अब्दुल जब्बार पठान
  6. नया आरम्भ
  7. रंग-ओ-बू
  8. पीछे की डोरियाँ
  9. मनुष्य की एक जाति
  10. लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
  11. चलता जीवन
  12. वास्को से पंजिम तक
  13. सौ साल का गुलाम
  14. मूर्तियों का व्यापारी
  15. आगे की पंक्तियाँ
  16. बदलते रंगों में
  17. हुसैनी
  18. समुद्र-तट का होटल
  19. पंजाबी भाई
  20. मलबार
  21. बिखरे केन्द्र
  22. कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
  23. बस-यात्रा की साँझ
  24. सुरक्षित कोना
  25. भास्कर कुरुप
  26. यूँ ही भटकते हुए
  27. पानी के मोड़
  28. कोवलम्
  29. आख़िरी चट्टान

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