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आखिरी चट्टान तक

मोहन राकेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7214
आईएसबीएन :9789355189332

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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त

"पाँच सेर आटा काफ़ी होगा," वह बोला। "आधा सेर घी ले आना। सब्ज़ी जो भी ठीक समझो, ले आना। हाँ, अन्दर मसाले-आले देख लो कौन-से नहीं हैं।" फिर मेरी तरफ़ मुड़कर उसने पूछा, "नाश्ता आप क्या पसन्द करते हैं?"

उसके निकले हुए होठ पर एक हलकी मुस्कान मैंने देखी जिसे उसने होठ पर ज़बान फेरकर दबा लिया।

"आप क्या नाश्ता करते हैं?" मैंने मन में अपने को कोसते हुए पूछ लिया।

"सवेरे-सवेरे कुछ ख़ास बनाने का तरद्दुद तो होता नहीं," वह बोला।

"चाय के साथ सिर्फ़ दो टोस्ट और दो अंडे ले लेता हूँ। आप भी यही ले लिया करें। यहाँ के इडली-डोसे से तो अच्छा ही है।" और फिर शौकत से बोला, "देखो, एक नौ आनेवाली डबलरोटी, दो टिकिया मक्खन और छह अंडे भी लेते आना।"

शौकत चलने लगा, तो कपूर ने फिर उससे एक सेकेंड रुकने को कहा और मुझसे पूछा, "यहाँ के केले अभी आपने खाये हैं कि नहीं?"

"यहाँ के केले कुछ खास होते हैं क्या?" मैंने 'नहीं' कहने से बचने के लिए पूछ लिया।

"खास?" वह उभड़कर बोला। "जितनी फ़ूड वैल्यू यहाँ के केले में होती है, उतनी और कहीं के किसी फल में नहीं। शौकत, एक दर्जन बड़े वाले केले भी लेते आना। साहब एक बार उनका स्वाद भी चखकर देख लें।"

मेरा ऐसे कई व्यक्तियों से पाला पड़ा था जिनके साथ व्यवहार रखने में मुझे बहुत कठिनाई का अनुभव होता था। पर कपूर उनमें सबसे आगे था। शाम को उसने अपने कमरे में खाना नहीं बनाया। कहा कि मैंने जो उसे शाम को अपने साथ बाहर चलकर खाने का निमन्त्रण दिया था, वह उसी के ख़याल में रहा है। मैंने उसे साथ ले जाकर बाहर खाना खिलाया। दूसरे दिन वह दो बजे तक कहीं बाहर गया रहा और आने पर नाराज़गी जाहिर की कि मैंने खाना बाहर जाकर क्यों खा लिया-उसके लौटने की राह क्यों नहीं देखी। उसके बाद शाम को भी उसने खाना नहीं बनाया। कहा कि उसे भूख नहीं है। दोपहर का खाना ही अढ़ाई-तीन बजे बना था-और यह सोचकर कि रात को कौन फिर से तरद्दुद करेगा, उसने दोनों वक़्त का एक-साथ ही खा लिया था। मगर जब मैं खाना खाने निकला, तो वह भी घूमने के इरादे से साथ हो लिया और होटल में बैठकर सिर्फ़ साथ देने के लिए दो प्लेट बिरयानी खा गया। लौटते हुए मैं ब्लैड वग़ैरह ख़रीदने लगा तो उसे भी कुछ चीज़ें ख़रीदने की याद हो आयी। चीज़ें बँधवा चुकने पर उसे ध्यान आया कि पैसे तो वह साथ लाया ही नहीं क्योंकि वह तो सिर्फ़ घूमने के इरादे से निकला था। दुकानदार से उसने कह दिया कि वह सब पैसे मेरे नोट में से काट ले।

वापस होटल में पहुँचने पर आग्रह के साथ कहा कि मैं एक मिनट उसके कमरे में आऊँ, उसे मुझसे कुछ खास बात करनी है। मैं अन्दर-ही-अन्दर जल-भुनकर ख़ाक हो रहा था, इसलिए मैं उसके कमरे में नहीं गया। दस मिनट बाद वह ख़ुद मेरे कमरे में चला आया।

"देखिए, मैं इस वक़्त कुछ पढ़ना चाहता हूँ" मैंने उसे देखकर रूखे स्वर में कहा। "इसलिए और बात हम कल किसी वक़्त करेंगे।"

"हाँ-हाँ शौक़ से पढ़िए," वह कुर्सी पर बैठता बोला। "मैं तो सिर्फ़ एक मिनट के लिए ही आया हूँ।"

"बताइए, क्या बात है एक मिनट की?" मैंने खड़े-खड़े ही पूछा।

"आप बैठ जाएँ, तो मैं बात करूँ," वह बोला। "ऐसे क्या बात होगी?"

"मैं बैठ जाऊँगा, आप बात बताएँ।"

"आप मुझसे नाराज हैं क्या?" उसने ऐसा चेहरा बनाकर कहा जैसे उसके साथ बहुत ज्यादती की जा रही हो।

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    अनुक्रम

  1. प्रकाशकीय
  2. समर्पण
  3. वांडर लास्ट
  4. दिशाहीन दिशा
  5. अब्दुल जब्बार पठान
  6. नया आरम्भ
  7. रंग-ओ-बू
  8. पीछे की डोरियाँ
  9. मनुष्य की एक जाति
  10. लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
  11. चलता जीवन
  12. वास्को से पंजिम तक
  13. सौ साल का गुलाम
  14. मूर्तियों का व्यापारी
  15. आगे की पंक्तियाँ
  16. बदलते रंगों में
  17. हुसैनी
  18. समुद्र-तट का होटल
  19. पंजाबी भाई
  20. मलबार
  21. बिखरे केन्द्र
  22. कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
  23. बस-यात्रा की साँझ
  24. सुरक्षित कोना
  25. भास्कर कुरुप
  26. यूँ ही भटकते हुए
  27. पानी के मोड़
  28. कोवलम्
  29. आख़िरी चट्टान

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