यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
|
9 पाठकों को प्रिय 320 पाठक हैं |
"विचारों की गहराई और यात्रा के अनुभवों का संगम : मोहन राकेश का आख़िरी चट्टान तक यात्रा-वृत्तान्त"
"मोतियों वाले ओ, मैं खाना खाने के लिए ही तो आपको बुला रहा हूँ," वह लुँगी को थोड़ा ऊपर उठाये हमारी तरफ़ बढ़ आया। "आपका खाना मेरे कमरे में तैयार रखा है।"
"देखिए कपूर साहब...," मैं बचने के लिए बहाना ढूँढ़ने लगा। पर वह बीच में ही मेरी बाँह हाथ में लेकर बोला, "अरे, आप तो तकल्लुफ़ करने लगे! मुझे आप अपना भाई नहीं समझते? शौकत, चलो, अन्दर चलकर प्लेटें लगाओ।"
शौकत उस लड़के का नाम था जो मुझे बुलाने आया था। उसके कपड़े इतने
उजले थे कि मैं सहसा विश्वास नहीं कर सका कि वह कपूर का नौकर है।
कमरे में पहुँचकर कपूर ने कहा, "आप भी भाई साहब, हद करते हैं। यहाँ का खाना हम लोग खा सकते हैं? जितने दिन मैं यहाँ हूँ, उतने दिन तो मैं आपको बाहर कहीं खाने नहीं दूँगा। बाद में जहाँ जैसा मिले, खाते रहिएगा।"
कपूर अपना खाना खुद स्टोव पर बनाता था। शौकत सही माने में उसका नौकर नहीं था-एक बेकार नवयुवक था जिसे उसने 'यूँ ही कुछ' देने का वादा करके 'यूँ ही कुछ थोड़ा-बहुत काम' करने के लिए रख छोड़ा था। वह आठ-दस दिन से उसके पास था। कपूर उससे वे सभी काम लेता था जो एक साधारण नौकर से लिये जा सकते हैं। मगर शौकत आँखें झुकाये चुपचाप हर काम किये जाता था। सब्ज़ी में इतनी मिर्च थी कि खाते हुए मेरी आँखों में पानी आ गया। कपूर ने यह देखा, तो बोला, "आपको शायद मिर्च ज्यादा पसन्द नहीं है। शाम से ज्यादा मिर्च नहीं डालूँगा।"
"शाम को आप खाना मेरे साथ बाहर खाइएगा," मैंने उसकी हर वक़्त की मेहमान-नवाज़ी से बचने के लिए कह दिया।
"आप फिर तकल्लुफ़ कर रहे हैं।" वह बोला। "मैंने आपसे एक बार कह दिया है कि मैं जब तक यहाँ हूँ, आपको बाहर खाना नहीं खाने दूँगा।"
एक कुत्ता दुम हिलाता दरवाज़े के पास आ खड़ा हुआ। कपूर ने एक चपाती उसकी तरफ़ फेंकते हुए कहा, "देखिए, इसमें इसका भी हिस्सा था। दाने-दाने पर खानेवाले की मोहर होती है, भाई साहब! वरना न कोई किसी को खिलाता है, और न ही कोई किसी का खाता है।" और कटोरे से मुँह लगाकर वह सब्ज़ी का बचा हुआ रसा एक ही घूँट में सुड़क गया।
मैं इस बार काफ़ी ज़ोर देकर उस पर यह स्पष्ट करने की चेष्टा की कि मैं उसका हर समय का मेहमान बनकर नहीं रह सकता, इसलिए शाम का खाना मैं बाहर ही खाऊँगा।
"मैं आपकी बात समझ रहा हूँ," वह बोला। "पर आप उस चीज़ की चिन्ता न करें। आप चाहें, तो थोड़ा-बहुत आटा-घी अपने पैसे से मँगवा लें। पकाना तो मुझे ही है। एक की जगह दो के लिए पका लिया करूँगा। मिर्च मैं अब से बहुत कम डालूँगा। सच कहता हूँ, यहाँ का खाना हम लोग नहीं खा सकते। मेरे जाने के बाद तो ख़ैर आपको वह रसम्-तक्रम् खाना ही पड़ेगा।" फिर शौकत की तरफ़ देखकर उसने कहा," तुम अब जाओ शौकत, दो बज रहे हैं। घर जाकर तुम्हें भी खाना खाना होगा। शाम को आते हुए जो-जो सामान ये कहें, इनके लिए लेते आना। पैसे इनसे ले लो।"
मुझे उसका फैला हुआ होठ अब भी अखर रहा था, पर उस समय शौकत को पैसे देने से मैं इन्कार नहीं कर सका। यह सोचकर कि दो-तीन रुपये जो ख़र्च होते हैं, हो जाएँ उसने ज़्यादा कहा, तो दो-एक बार उसके साथ खा भी लूँगा, मैंने जेब से दस का नोट निकालकर शौकत को दे दिया। शौकत ने कपूर से पूछा कि क्या-क्या समान लाना होगा।
|
- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान