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आखिरी चट्टान तक

मोहन राकेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7214
आईएसबीएन :9789355189332

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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त

उसने जवाब में जो इशारे किये, उनसे मुझे लगा कि वह कह रहा है मैं लौटकर वहीं आ जाऊँ, वह वहाँ रुककर मेरा इन्तज़ार करेगा। आख़िर जब उसे लगा कि हम दोनों बिना एक-दूसरे की बात समझे यूँ ही फिजूल हाथ हिला रहे हैं, तो वह रिक्शा एक तरफ़ छोड़कर चला आया और इशारे से मुझे पीछे आने को कहकर पगडंडी पर आगे-आगे चलने लगा।

उस तरह कुछ दूर चलकर हम जहाँ पहुँचे, वह परम शिवम् का एक मन्दिर था। पन्द्रह-बीस मिनट मैं घूमकर मन्दिर देखता रहा। यह जानकर कि मैं उत्तर भारत से आया हूँ, पुजारी बहुत उत्साह के साथ मन्दिर की एक-एक चीज़ मुझे दिखाता रहा। उसने अनुरोध किया कि मैं कमीज़ और बनियान उतारकर मन्दिर को अन्दर से भी देखूँ। अन्दर घूम चुकने के बाद उसने मुझे मन्दिर के संस्थापक स्वामीजी की मूर्ति दिखायी जो छह हज़ार रुपये में इटली से बनकर आयी थी। चलने से पहले उसने मुझे नारियल का पानी पिलाया। उसे बहुत ख़ुशी थी कि मैं मन्दिर के महत्त्व को समझकर इतनी दूर से वहाँ आया हूँ-एक ऐसा ही दर्शनार्थी कुछ वर्ष पहले भी कहीं दूर से वहाँ आया था।

मन्दिर से लौटते हुए मेरी नज़र पगडंडी के एक तरफ़ मिट्टी खोदते मज़दूरों पर पड़ी। कुछ पुरुष थे जो नंगे बदन, दो-गज़ी धोतियाँ ऊपर को लपेटे, मिट्ठी खोदकर तसलों में भर रहे थे। कुछ स्त्रियाँ थीं जो धोतियों के साथ ब्लाऊज़ भी पहने थीं, और तसले सिरों पर उठाकर मिट्टी दूसरी तरफ़ फेंकने ले जा रही थीं। काम के साथ-साथ वे लोग आपस में चुहल भी कर रहे थे। मैं पगडंडी पर रुककर उन्हें काम करते देखता रहा।

उनमें से एक नवयुवक ने मेरी तरफ देखकर मलयालम में न जाने क्या सवाल पूछा। मैं चुपचाप मुस्करा दिया, तो रिक्शावाले ने उसे बताया, "मलयाली इल्ला।"

इस पर वे सब लोग मेरी तरफ़ देखने लगे। आपस में थोड़ी बात करने के बाद उसी नवयुवक ने मुझसे एक और सवाल पूछा।

"मालयाली इल्ला।" इस बार मैंने कहा। इस पर वे सब हँस दिये। मैंने उनकी तरफ़ हाथ हिलाया और वहाँ से चल दिया। उनमें से भी कुछ एक ने जवाब में हाथ हिलाये। अब रिक्शावाला मुझे मलयालम में शायद उनकी कही बातों का अर्थ समझाने लगा। दो-एक मिनट बोलकर उसने प्रश्नात्मक स्वर में बात समाप्त की और मेरी तरफ़ देखा। मैंने सिर हिलाया कि मेरी समझ में कुछ नहीं आया। उसने निराश भाव से हाथ झटके और हम दोनों खिलखिलाकर हँस दिये।

स्टेशन के पास रिक्शा से उतरकर मैं चाच पीने सामने की एक दुकान में चला गया। बाहर बोर्ड लगा था : 'मुस्लिम होटल'। रिक्शावाला मेरा मेहमान था क्योंकि उसी ने उस जगह की सिफ़ारिश की थी। एक ख़ास ढंग से भाप देकर कपड़े के मैले-से स्टेनर में छानकर नये ही ढंग से बनायी गयी वह चाय जब एक मैली-सी प्याली में सामने आयी, तो मेरा पीने को मन नहीं हुआ। पर पहला घूँट भरने पर चाय का फ्लेवर इतना अच्छा लगा कि 'सिर्फ एक घूँट और' भरने के लिए प्याली हाथ में लिये रहा। उसके बाद दो-तीन घूँट और भर लिये, फिर भी प्याली परे हटाते नहीं बना।

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    अनुक्रम

  1. प्रकाशकीय
  2. समर्पण
  3. वांडर लास्ट
  4. दिशाहीन दिशा
  5. अब्दुल जब्बार पठान
  6. नया आरम्भ
  7. रंग-ओ-बू
  8. पीछे की डोरियाँ
  9. मनुष्य की एक जाति
  10. लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
  11. चलता जीवन
  12. वास्को से पंजिम तक
  13. सौ साल का गुलाम
  14. मूर्तियों का व्यापारी
  15. आगे की पंक्तियाँ
  16. बदलते रंगों में
  17. हुसैनी
  18. समुद्र-तट का होटल
  19. पंजाबी भाई
  20. मलबार
  21. बिखरे केन्द्र
  22. कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
  23. बस-यात्रा की साँझ
  24. सुरक्षित कोना
  25. भास्कर कुरुप
  26. यूँ ही भटकते हुए
  27. पानी के मोड़
  28. कोवलम्
  29. आख़िरी चट्टान

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