यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
|
9 पाठकों को प्रिय 320 पाठक हैं |
"विचारों की गहराई और यात्रा के अनुभवों का संगम : मोहन राकेश का आख़िरी चट्टान तक यात्रा-वृत्तान्त"
होटल की बेंचें भी प्याली से कम मैली नहीं थीं। हम्माम, काउंटर का तख्ता और दरवाज़ों की जालियाँ-सब पर मैल की परतें जमी थीं। दो छोटे-छोटे कमरे थे। एक जिसमें बैठकर मैं चाय पी रहा था। दूसरा उसके पीछे था। उस कमरे में भी एक मेज़ और कुछ बेंचें रखी थीं। कुछ नवयुवक काफ़ी बेतकल्लुफ़ी से वहाँ बैठे साहित्य-चर्चा कर रहे थे। मेज़ पर एक लेख के काग़ज़ बिखरे थे जो शायद उनमें से किसी ने पढ़ा था। लेख को लेकर जो बहस चल रही थी, उसमें से कोई-कोई शब्द मेरे पल्ले पड़ जाता था-इनसाइट, वैल्यूज़, लाइफ़ मैटर। काग़ज़ों के आसपास रखी चाय की प्यालियाँ कब की ख़ाली हो चुकी थीं। बातचीत की गरमागरमी में कभी उनमें से किसी का हाथ अपने सामने की ख़ाली प्याली को ही उठाकर होठों तक ले जाता। चुस्की लेने की कोशिश में पता चलता कि प्याली में चाय नहीं है, तो निराशा का हलका झटका महसूस करके वह प्याली नीचे रख देता। बाहरी दरवाज़े की जाली में से सड़क का कुछ हिस्सा दिखाई दे रहा था। सड़क के परले सिर पर तीन स्त्रियाँ एक पेड़ के नीचे अपने बोरिया-बिस्तर का दायरा-सा बनाये लेटी थीं। दो बच्चे थे जिनमें से एक बँधी चारपायी के पायों में से हरएक पर बारी-बारी से हाथ रखता हुआ अपना ही कोई खेल खेल रहा था। दूसरा बच्चा, जो उससे थोड़ा बड़ा था, एक बछिया को धकेलकर दायरे से दूर हटाने की कोशिश कर रहा था। तभी एक स्त्री न जाने किस बात से अचानक उठकर बैठ गयी और तीख़ी आवाज़ में बड़े बच्चे को कोसने लगी। बच्चा बछिया को उसकी जगह पर छोड़कर सड़क के इस पार चला आया। पर स्त्री का कोसना इसके बाद भी कुछ देर जारी रहा।
मैंने एकएक घूँट करके पूरी प्याली ख़ाली कर दी थी। प्याली रखकर डायरी में कुछ नोट्स लेने लगा, तो देखा कि कोने की मेज़ पर चाय पीता एक आदमी एकटक मेरी तरफ़ देख रहा है। वह शायद अपने मन में मेरी गतिविधि के नोट्स ले रहा था।
'मुस्लिम होटल' से निकलकर मैं स्टेशन के वेटिंग हॉल में आ गया। हॉल क्या, एक कमरा-सा था जिसमें एक तरफ बुकिंग ऑफिस था, दूसरी तरफ़ टी स्टाल। बीच में कुछ बेंचें पड़ी थीं। ज्यादातर बेंचों पर लोग लेटे या बैठे थे, पर आसपास किसी का सामान नज़र नहीं आ रहा था। एक बेंच पर एक फटे कानोंवाली बुढ़िया बैठी थी जो अपनी सुँघनी हाथ में मल रही थी। उसके साथ की बेंच पर एक अधेड़ मुसलमान घुटने ऊपर उठाये पैरों को आकाश में झुलाता हुआ साथ बैठे नवयुवक से कुछ बात कर रहा था। सिर्फ़ उसी बेंच पर थोड़ी-सी जगह खाली थी, इसलिए मैं भी उनके पास जा बैठा। अभी बैठ ही रहा था कि आपस सब लोग हँस दिये। अधेड़ मुसलमान ने कुछ बात कही थी। मैं थोड़ा अचकचा गया कि कहीं बात मुझे लेकर तो नहीं कही गयी। मेरे चेहरे से भाँपकर कि मैं ऐसा सोच रहा हूँ, साथ बैठा नवयुवक अँग्रेज़ी में मुझसे बोला, "आप शायद इनकी बात नहीं समझे। मैं इनसे कह रहा था कि हर आदमी को तीन चीज़ें अधिकार के तौर पर मिलनी चाहिए-रोटी, कपड़ा और मकान। पर ये कह रहे हैं कि तीन नहीं चार चीज़ें मिलनी चाहिए-रोटी, कपड़ा, मकान और औरत।"
इस पर मैं भी हँस दिया।
|
- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान