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आखिरी चट्टान तक

मोहन राकेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7214
आईएसबीएन :9789355189332

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"विचारों की गहराई और यात्रा के अनुभवों का संगम : मोहन राकेश का आख़िरी चट्टान तक यात्रा-वृत्तान्त"

मैंने सिर हिलाया-नहीं।

"तामिलु?"

मैंने फिर सिर हिला दिया।

"हिन्दुस्तानी?"

"हाँ," मैंने कहा। "हिन्दुस्तानी।"

"क्या पूछता है, बोलो।" वह अब बहुत पास आ गया।

"मैं जानना चाहता हूँ कि उधर जो दो रास्ते हैं, उनमें से कॉफ़ी के बगीचे का रास्ता कौन-सा है?"

"इधर कॉफ़ी का कोई बगीचा नहीं है," वह बोला। "तुमको किसने इधर भेजा?"

मैंने उसे बता दिया मैं कैसे एक आदमी से रास्ता पूछकर उधर आया हूँ।

वह मुस्कराया। बोला, "उसने समझा तुम कॉफ़ी पीने का जगह पूछता है। इधर आगे जाने से कॉफ़ी पीने का होटल मिलेगा। कॉफ़ी का बगीचा दूसरी तरफ़ है। मेरे को इधर काम है, नहीं तो मैं चलकर तुम्हें दिखा देता।" मैं निराश भाव से सिर हिलाकर वहाँ से हटने लगा, तो उसने अपने साथियों की तरफ़ मुड़कर उनसे कुछ कहा। फिर मुझसे बोला, "अच्छा आओ, मैं तुम्हें ले चलता है।"

वह इत्मीनान से खाद पर से होता हुआ आगे-आगे चलने लगा। मैं भी टखने-टखने खाद पर हलके पैर रखता और पत्थरों पर पैर जमा कर अपना सन्तुलन ठीक करता उसके पीछे-पीछे चलने लगा। खाद से आगे एक पगडंडी पार करके हम सड़क पा पहुँच गये। वहाँ आकर उसने पूछा, "तुम इधर कैसे आया?"

"ऐसे ही-घूमने के लिए।" मैंने कहा।

"ख़ाली घूमने के लिए?" उसकी आँखों में हलकी चमक आ गयी। "कौन-कौन-सा जगह देख लिया?"

मैंने संक्षेप में उसे बता दिया कि गोआ से वहाँ तक मैं किस-किस जगह होकर आया हूँ।

"घूमने में बड़ा मज़ा है," वह बोला। "मैं भी बहुत घूमा है। बर्मा, सिंगापुर, ईरान, कलकत्ता, दिल्ली, पंजाब-सब जगह देख आया है। मैं पहले फ़ौज में था। फ़ौज में ही मैं हिन्दुस्तानी सीखा है। थोड़ा-थोड़ा पंजाबी भी सीखा है। की गल्ल ए ओए कुत्ते दिया पुत्तरा!" और वह खिलखिलाकर हँस दिया।

नीगिरि की ऊपरी चोटियों से बादल के बड़े-बड़े सफ़ेद टुकड़े इस तरह हमारी तरफ़ आ रहे थे जैसे कोई थोड़ी-थोड़ी देर बाद उन्हें एक-एक करके गुब्बारों की तरह हवा में छोड़ रहा हो। उनके सायों से घाटी में धूप और छाँह की शतरंज सी बन रही थी। हमारे रास्ते में कुछ क्षण धूप रहती, फिर छाया आ जाती। सड़क हल्के बलखाती हुई लगातार नीचे को उतर रही थी।

मैं चलते हुए उससे उसके बारे में पूछता रहा। उसका नाम गोविन्दन् था। फ़ौज में वह अस्थायी तौर से भर्ती हुआ था। कई जगह की लड़ाइयाँ उसने देखी थीं। पर लड़ाई के बाद पहले रिट्रेंचमेंट में ही उसकी वह नौकरी समाप्त हो गयी थी। लड़ाई से पहले भी वह मज़दूरी करता था, अब लौटकर फिर वही काम कर रहा था। दिन में मज़दूरी के एक रुपया पाँच आने मिलते थे जिनसे वह अपने चार व्यक्तियों के परिवार का गुज़ारा चलाता था।

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    अनुक्रम

  1. प्रकाशकीय
  2. समर्पण
  3. वांडर लास्ट
  4. दिशाहीन दिशा
  5. अब्दुल जब्बार पठान
  6. नया आरम्भ
  7. रंग-ओ-बू
  8. पीछे की डोरियाँ
  9. मनुष्य की एक जाति
  10. लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
  11. चलता जीवन
  12. वास्को से पंजिम तक
  13. सौ साल का गुलाम
  14. मूर्तियों का व्यापारी
  15. आगे की पंक्तियाँ
  16. बदलते रंगों में
  17. हुसैनी
  18. समुद्र-तट का होटल
  19. पंजाबी भाई
  20. मलबार
  21. बिखरे केन्द्र
  22. कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
  23. बस-यात्रा की साँझ
  24. सुरक्षित कोना
  25. भास्कर कुरुप
  26. यूँ ही भटकते हुए
  27. पानी के मोड़
  28. कोवलम्
  29. आख़िरी चट्टान

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