यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
देवताओं का परिचय देने के बाद श्रीधरन् मुझे कूथाम्बलम् में ले गया। वह वहाँ की नाट्यशाला थी जहाँ पौराणिक गाथाओं का अभिनय के साथ सस्वर पाठ किया जाता है। वहाँ से लौटते हुए वह मुझे मन्दिर के प्रधान उत्सव त्रिचुरपुरम् के विषय में बताने लगा। त्रिचुरपुरम् हर साल अप्रैल के महीने में पड़ता है। उस रात मन्दिर के बाहर थाकिनकाड मैदान में हज़ारों रुपये की आतिशबाज़ी चलायी जाती है। जिन दिनों ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ कोचिन का सम्बन्ध स्थापित हुआ, उन दिनों वहाँ राजा राम वर्मा का राज्य था। राम वर्मा को लोग शक्थ थम्पूरन् (योग्य शासक) के नाम से भी जानते हैं। राम वर्मा ने त्रिचुर के एक अभिजात नायर परिवार की कन्या के साथ विवाह किया था। त्रिचुरपुरम् उसी अवसर की याद में मनाया जाता है। उन दिनों मन्दिर के दक्ष्णि की ओर सागवान का घना जंगल था। जिस व्यक्ति को मृत्यु-दंड दिया जाना होता, उसे उस जंगल में भेज दिया जाता था और जंगली जानवर वहाँ उसे खा जाते थे। राम वर्मा ने अपने विवाह के अवसर पर वह जंगल कटवा दिया था जिससे त्रिचुर के लोगों में उसका मान बहुत बढ़ गया था।
बात करते हुए हम लोग वापस श्रीधरन् के घर पहुँच गये। वहाँ आकर मैंने कपड़े बदल लिये। श्रीधरन् ने अनुरोध किया कि जाने से पहले मैं कॉफ़ी की प्याली पी लूँ। उसके चेहरे के भाव और हाथों के हिलने से कुछ घबराहट और उत्तेजना झलक रही थी। वह मुझे बता चुका था कि त्रिचुर के बाहर का मैं पहला व्यक्ति हूँ जो उनके यहाँ अतिथि के रूप में आया हूँ। मुझे बाहर के कमरे में छोड़कर वह कॉफ़ी लाने के लिए अन्दर चला गया। मैं उस बीच कमरे के फ़र्श और दीवारों पर नज़र दौड़ाता रहा।
मन्दिर जाने से पहले श्रीधरन् ने जो कुछ बताया था, उससे मैं जान चुका था कि व अपनी माँ के साथ घर में अकेला रहता है। उम्र पैंतीस की हो चुकी थी, फिर भी उसने ब्याह नहीं किया था। आगे भी उसका ज़िन्दगी-भर ब्याह करने का विचार नहीं था। वह बहुत छोटा था जब उसके पिता का देहान्त हो गया था। बीच में कई बार छोड़कर अट्ठाईस साल की उम्र में उसने मुश्किल से बी.ए. की पढ़ाई पूरी की थी। माँ धार्मिक विचारों की थीं-घर के काम-काज से जितना समय बचता, सारा पूजा-पाठ में बिताती थीं। श्रीधरन् पर शुरू से ही माँ का बहुत प्रभाव था। इसलिए बी.ए. करते ही उसने धार्मिक संस्था की यह नौकरी कर ली थी। दूसरी किसी नौकरी की बात उसने सोची ही नहीं थी। यहाँ से कुल पैंतीस रुपया महीना मिलता था। त्रिचुर के बाहर सवा सौ की एक नौकरी मिल रही थी, पर वह त्रिचुर छोड़कर जाने की कल्पना भी नहीं कर सकता था। आज तक सिर्फ़, एक बार वह त्रिचुर से बाहर गया था-कालीकट। पर वहाँ से लौटने पर उसे कई दिन बुख़ार आता रहा। माँ का विश्वास था कि भगवान् वडक्कुनाथन् की सेवा से दूर जाने के कारण ही ऐसा हुआ है। स्वयं श्रीधरन् को भी इस बात का पूरा विश्वास था। माँ स्वयं घर से मन्दिर की सड़क को छोड़कर जीवन-भर त्रिचुर की ओर किसी सड़क पर भी नहीं गयी थीं। सिर्फ़ एक बार श्रीधरन् माँ को एक धार्मिक चित्र दिखाने ले गया था। उस रात माँ ने एक बहुत बुरा सपना देखा और निश्चय कर लिया कि भविष्य में अपने निश्चित रास्ते को छोड़कर और किसी रास्ते पर कभी नहीं जाएँगी। श्रीधरन् को गर्व था कि उनके घर का वातावरण बहुत शान्त है-और घरों की तरह कलह-क्लेश की ध्वनियाँ वहाँ की शान्ति को भंग नहीं करतीं। माँ को और उसे इस शान्ति का इतना अभ्यास था कि वे ऐसे किसी परिवर्तन के लिए तैयार नहीं थे जिससे वह वातावरण बदल जाए। श्रीधरन् के ब्याह न करने का भी यही कारण था। माँ उसके इस जितेन्द्रिय संकल्प से सन्तुष्ट थीं। सोचती थीं कि आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करके लड़का अपना परलोक सुधार रहा है। आगे चलकर असुविधा न हो, इसलिए एक समय का चौका-बर्तन श्रीधरन् अपने हाथ से करता था।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान