यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
फ़र्श इस तरह चमक रहा था कि धूल का एक ज़र्रा भी हो, तो साफ़ नज़र आ जाए। श्रीधरन् ने बताया था कि माँ बड़ी मेहनत से हर रोज़ पूरे घर की सफ़ाई करती हैं। यूँ घर काफ़ी खस्ता हालत में था और दीवारों में जगह-जगह दरारें पड़ी थीं। घर में कुल तीन कमरे थे। एक आगे का जिसमें मैं बैठा था। उससे पीछे का कमरा रसोई का था। तीसरा कमरा जिसे मैं नही देख सका, रसोई से पीछे था और वहाँ काफ़ी अँधेरा था। माँ उसी कमरे में रहती थीं और वहीं उन्होंने एक छोटा-सा मन्दिर भी बना रखा था। घर के आँगन में घर का अपना कुँआ था जिस पर मन्दिर जाने से पहले मैं नहाया था। घर से निकलने पर पहले घर की ही एक छोटी-सी गली थी जिसके साथ पाँच फुट की दीवार उठी हुई थी। इस गली के सिरे पर एक छोटा-सा दरवाज़ा था जो बाहर की गली में खुलता था। उस दरवाज़े को बन्द कर देने से वह घर-बाहर की दुनिया से बिल्कुल कट जाता था। अन्दर की गली में, घर की सीढ़ियों के पास, एक बड़ा-सा पीपल का पेड़ था जिसकी सूखी पत्तियाँ टूट-टूटकर खिड़की के रास्ते अन्दर के चमकते फ़र्श पर आ गिरती थीं। घर की ख़ामोशी में पत्तियों के फ़र्श पर घिसटने का शब्द ऐसे लगता था जैसे कोई अपने नाखूनों से उस एकान्त को छील रहा हो।
श्रीधरन् कॉफ़ी की दो प्यालियाँ एक थाली में लिये हुए अन्दर से आ गया। उसके चेहरे पर उत्तेजना और घबराहट पहले से बढ़ गयी थी। प्यालियाँ वह तिपाई पर रखने लगा, तो मैंने देखा कि उसका हाथ भी ज़रा-ज़रा काँप रहा है। उसने एक प्याली मुझे दी और दूसरी प्याली अपने लिए उठाता हुआ प्रयत्न के साथ मुस्कराया। परन्तु वह मुस्कराहट मुस्कराहट नहीं, अपने अन्दर के कसी आवेग को रोकने की कोशिश थी। कुछ देर चुपचाप कॉफ़ी पीते रहे। फिर मैंने उससे पूछ लिया कि वह अपना छुट्टी का दिन किस तरह बिताता है।
"मन्दिर से लौटकर माँ को 'भगवद्गीता' का पाठ सुनाता हूँ," वह किसी तरह अपनी घबराहट पर क़ाबू पाने की चेष्टा करता बोला। "उसके बाद रामकृष्ण आश्रम के स्वामीजी के पास चला जाता हूँ। वहाँ से आकर...आकर माँ को उनका प्रवचन सुनाता हूँ। फिर खाना खाकर कुछ देर स्वाध्याय करता हूँ। सायंकाल फिर मन्दिर में चला जाता हूँ। मन्दिर से लौटने तक खाना बनाने का समय हो जाता है। मैंने आपको बताया था न कि रात का खाना मैं अपने हाथ से बनाता हूँ।"
"हमेशा यह एक ही तरह का कार्यक्रम रहने से कभी आपका मन नहीं ऊबता?" मेरे मुँह से ये शब्द निकलते-न-निकलते श्रीधरन् का चेहरा पीला, फिर स्याह पड़ गया। उसने जल्दी से एक नज़र अन्दर की तरफ़ देख लिया, फिर दबे स्वर में कहा, "देखिए ऐसी बात आपको नहीं कहनी चाहिए। माँ अँग्रेज़ी नहीं समझतीं-नहीं तो यह बात सुनकर उन्हें बहुत दु:ख होता।"
मुझे अफ़सोस हुआ मैंने ऐसी बात क्यों पूछ ली। मैंने क्षमा माँगते हुए उससे कहा कि मैं केवल जानकारी के लिए पूछ रहा था-किसी तरह की आलोचना करना मेरा उद्देश्य नहीं था।
"आपको ऐसा लग सकता है," श्रीधरन् काँपते स्वर में बोला। "परन्तु हमारे लिए इससे सुखकर जीवन का कोई रूप हो ही नहीं सकता। आप बाहर के आदमी हैं, इसलिए आप...आप शायद इस चीज़ को नहीं समझ सकते।" फिर एक बार अन्दर की तरफ़ नजर डालकर अटकते स्वर में उसने कहा, "हमें तो लगता है कि धर्म-चर्चा के लिए अब भी हमें बहुत कम समय मिल पाता है। आदमी कितना कुछ और कर सकता है-पर बहुत-सा समय घर के कामों में व्यर्थ चला जाता है।"
सहसा बहुत ही अव्यवस्थित होकर वह उठ खड़ा हुआ और बड़े-बड़े पग उठाता अन्दर जला गया। मैं कॉफ़ी पी चुका था। प्याली रखकर मैं दीवार पर लगे चित्रों को देखने लगा। धर्मशास्ता अय्यप्पया और अभिजात नायर-परिवार की सुन्दरी। राजा राम वर्मा और ईस्ट इंडिया कम्पनी का कप्तान। रामकृष्ण मिशन के स्वामीजी। श्रीधरन् की माँ। रामेश्वर का मन्दिर...।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
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- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
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- मलबार
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- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान