यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
|
9 पाठकों को प्रिय 320 पाठक हैं |
बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
श्रीधरन् लौट आया। उसका चेहरा अब और भी बेजान हो रहा था। मैं उसके आते ही उठ खड़ा हुआ। उसे धन्यवाद देते हुए मैंने कहा कि मैं अब वहाँ से चलना चाहूँगा। "चलने से पहले एक बार अन्दर जाकर माँ को भी धन्यवाद दे दूँ...।"
"चलना चाहेंगे आप?" श्रीधरन् बहुत आकस्मिक ढंग से बोला। "तो आइए मैं आपको बाहर दरवाज़े तक छोड़ दूँ।"
"हाँ, बस एक बार अन्दर माँ से मिल लूँ...।"
"नहीं, नहीं," श्रीधरन् जैसे किसी संकट में पड़कर हाथ झाड़ता बोला। "माँ की तबीयत ठीक नहीं है। सिर में दर्द है-शायद थोड़ा बुखार भी है। आप उनसे...मेरा मतलब है आप अगर उनसे...देखिए बुरा नहीं मानिएगा। हमारे घर का वातावरण कुछ दूसरी तरह का है। आपको शायद...शायद मैं समझा नहीं सकूँगा...।"
"अच्छा, आप मेरी तरफ़ से उन्हें धन्यवाद दे दीजिएगा," मैंने कहा। बात कुछ-कुछ मेरी समझ में आ रही थी। श्रीधरन् की आँखें डरी-डरी-सी हो रही थीं। लग रहा था जैसे वह अपने एक अपराध को सामने मूर्त्त-रूप में देख रहा हो। मेरा वहाँ आना शायद उस घर के जीवन की तीसरी मनहूस घटना थी। "मुझे दु:ख है कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है। वे स्वस्थ होतीं, तो मैं अवश्य उनसे मिलकर जाता।"
मैं हाथ जोड़कर चलने को हुआ, तो श्रीधरन् बोला, "मैं आपके साथ दरवाज़े
तक चल रहा हूँ। बुरा नहीं मानिएगा। इस घर में बाहर का आदमी पहले कभी नहीं आया। इसीलिए...इसलिए शायद माँ...।" और वह जैसे अपनी ही बात में उलझकर चुप कर गया।
अन्दर की गली के दरवाज़े तक वह मेरे साथ आया। वहाँ से उसने हाथ जोड़ दिये। मैंने भी हाथ जोड़ दिये। मैं बाहर निकलकर खुली गली में चलने लगा। श्रीधरन? ने दरवाज़ा बन्द कर लिया।
* * *
|
- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान