यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
मैंने उससे और नहीं पूछा। वह वहाँ से मुझे साथ के एक और कमरे में ले गया। वहाँ की दीवारों पर शिव-मोहिनी से लेकर पशु-पक्षियों तक के रति-समय के चित्र थे। वह वहाँ गोवर्द्धन पर्वत के चित्र की ओर संकेत करके बोला, "देखिए, इसमें पशु-पक्षियों के जीवन का कितना सूक्ष्म अध्ययन है।"
चित्र में सचमुच पर्वत-जीवन का बहुत सूक्ष्म और विस्तृत अध्ययन था, हालांकि एक विसंगति भी उसमें थी। चित्रकार ने ब्रज के गोवर्द्धन पर्वत पर शेर और हरिण भी एकत्रित कर दिये थे। कुछ चित्रों में-विशेष रूप से कृष्ण-गोपी-विहार के चित्रों में-आँखों के वासनात्मक भाव का बहुत सुन्दर चित्रण था।
अन्त में हम उस कमरे में पहुँचे जहाँ रामायण-म्यूरेल बने थे। कमरे के एक कोने में दिया जल रहा था। उससे कमरे का धुआँरा वातावरण हल्के-हल्के काँपता
महसूस होता था। चित्रों के रंगों में वहाँ अधिक निखार और स्पष्टता थी। मैं कमरे का पूरा चक्कर काटकर एक दीवार के पास रुका, तो चौकीदार ने पीछे से कहा, "इन चित्रों को इतना पास से मत देखिए। थोड़ा पीछे हटकर देखेंगे, तभी आपको इनकी वास्तविक सुन्दरता का पता चल सकेगा।"
हर बार बात कह चुकने पर उसकी आँखें दूसरी तरफ़ हट जाती थीं और निचला होठ क्षण-भर काँपता रहता था। "लगता है तुम चौकीदार ही नहीं चित्रकला के पारखी भी हो," मैंने हल्के से उसके कन्धे पर हाथ रखकर कहा। "यहाँ के सब चित्रों को लगता है तुमने बहुत ध्यान से देख रखा है।"
उसकी आँखें पल-भर मेरी आँखों में मिली रहीं। फिर पहले से ज्यादा झुक गयीं। "मैं भी एक चित्रकार हूँ, "उसने मुश्किल से सुनाई देते स्वर में कहा।
मैंने थोड़ा चौंककर उसे देखा। ख़ाकी निक्कर और बाहर निकली ख़ाकी कमीज़ पहने छोटे कद़ और दुबले शरीर का वह चौकीदार एक चित्रकार था।
"तुम्हारा नाम क्या है?" मैंने पूछा। मेरी आँखें उसके फटे पैरों, बाँहों और टाँगों की रूखी चमड़ी और सूखे-मुरझाये होठों को देखती रहीं।
"भास्कर कुरुप," उसने कहा। "मैं कोचिन स्कूल ऑव आर्ट में शिक्षा ले रहा हूँ।"
"तुम आर्ट स्कूल में शिक्षा ले रहे हो और साथ यह काम भी करते हो?"
इस पर उसने बताया कि पैलेस का चौकीदार वह नहीं, उसका पिता है। इन दिनों वह छुट्ठी पर गया है, इसलिए उसे अपनी जगह ड्यूटी पर छोड़ गया है। जब वह आर्ट स्कूल जाता है, तब उसकी जगह उसका भाई रामन ड्यूटी पर रहता है। यह वही लड़का था जिससे मैंने उस जगह के बारे में पूछा था।
बात करते हुए हम वापस ड्योढ़ी में आ गये। मैंने भास्कर से पूछा कि उसकी ड्यूटी का अभी कितना समय बाक़ी है। उसने बताया कि ड्यूटी का समय घंटा-भर पहले पूरा हो चुका है-इसीलिए मेरे आने तक दरवाज़ा बन्द हो चुका था। मैंने उससे कहा कि वह अगर ख़ाली है, तो हम कहीं चलकर साथ चाय पी सकते हैं।
भास्कर ने दरवाज़ा बन्द किया और मेरे साथ नीचे आ गया। वहाँ से हमने उसके छोटे भाई रामन को भी साथ ले लिया और पास ही एक चाय की दुकान में चले गये। वहाँ बात करते हुए मुझे भास्कर से पता चला कि उसकी उम्र कुल बाईस साल है, हालाँकि अपनी घनी मूँछों और चेहरे की गहरी लकीरों के कारण वह तीस-बत्तीस से कम का नहीं लगता था। वह पहले हाई स्कूल तक पढ़ा था। स्कूल से निकलने के बाद उसने दो-एक जगह नौकरी की, पर किसी भी नौकरी में उसका मन नहीं लगा। उसे बचपन से ही चित्र बनाने का शौक़ था। चाहता था किसी तरह अपने इस शौक़ को आगे बढ़ा सके। पिता आर्ट स्कूल की फीस नहीं जुटा सकते थे, फिर भी किसी तरह वे वहाँ दाख़िल कराने के लिए राजी हो गये थे। वह पूरी कोशिश करता था कि उसकी पढ़ाई का बोझ पिता पर न पड़े। इसलिए अवकाश के समय मज़दूरी भी कर लेता था। मगर वह उसका निश्चित संकल्प था कि जैसे भी हो, वहाँ का अपना कोर्स ज़रूर पूरा करेगा।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान