यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
स्वाभाविक रूप से मेरी यह इच्छा हो रही थी कि उसकी बनायी हुई चीज़ें देखी जाएँ। मैंने उससे कहा कि इसके लिए वहाँ से उठकर मैं उसके घर चलूँगा।
इससे भास्कर थोड़ा कुंठित हो गया। अपने नाख़ूनों को देखता बोला, "मैं अभी विद्यार्थी हूँ। सीख रहा हूँ। घर पर थोड़े से ख़ाके रखे हैं...पर उनमें ख़ास कुछ नहीं है।"
"ख़ास न सही," मैंने कहा। "पर जो कुछ है, उसे दिखाने में तो तुम्हें एतराज़ नहीं?"
"नहीं, एतराज़ नहीं है मुझे," वह बोला। "पर देखने को कुछ ख़ास नहीं है। आप अगर देखना ही चाहते हैं, तो मैं...रामन को भेजकर कुछ ख़ाके यहीं मँगवा लेता हूँ।"
उसके भाव से मुझे लगा कि ख़ाके दिखाने में शायद उसे उतना एतराज नहीं है, जितना मुझे साथ घर ले जाने में।
रामन जाकर जल्दी ही लौट आया। भास्कर ने उसके आते ही सब ख़ाके उसके हाथ से ले लिये और बहुत संकोच के साथ एक-एक करके मुझे दिखाने लगा। उसके विषय सीमित थे-फिर भी यह स्पष्ट था कि वह काफ़ी मेहनत और लगन से काम कर रहा है। एक बड़ा-सा फ़्रेम उसने शुरू से ही अलग रख दिया था। और सब ख़ाके देख चुकने के बाद मैंने उससे कहा, "वह फ़्रेम नहीं दिखाया तुमने।"
"वह...विघ्नेश्वर का चित्र है," भास्कर अब और भी संकोच के साथ बोला। "वह मेरा पहला बड़ा चित्र है। परन्तु धार्मिक है, इसलिए...।"
उसने वह फ़्रेम उठाकर मेरे सामने कर दिया। और चित्रों की तुलना में वह चित्र काफ़ी साधारण था। जब तक मैं उसे देखता रहा, भास्कर एकटक मेरी आँखों में कुछ पढ़ने का प्रयत्न करता रहा। मैंने फ़्रेम उसे लौटाया, तो उसकी आँखें अपने स्वभाव के अनुसार नीचे झुक गयीं।
"मैं धार्मिक चित्र नहीं बनाता," उसेन जैसे सफ़ाई देते हुए कहा, "आज तक यही एक ऐसा चित्र मैंने बनाया है। यह मेरा पहला बड़ा चित्र था और मैंने सोचा कि...शुरुआत के लिए...यही ठीक होगा।"
कहते-कहते उसका चेहरा थोड़ा सुर्ख़ हे गया-अपनी आस्तिकता के अपराध-
भाव से। मैं उसके दूसरे ख़ाकों को फिर और एक बार देखने लगा।
चाय पी चुकने के बाद भी हम लोग कुछ देर बात करते रहे। मैंने रामन से उसके बारे में पूछा, तो वह बहुत उत्साह से अपनी पढ़ाई-लिखाई का ब्यौरा मुझे देने लगा। उस बीच भास्कर अपनी कॉपी में एक काग़ज़ फाड़कर उस पर पेंसिल से कुछ लिखता रहा।
हम लोग चाय की दुकान से बाहर निकले, तो साँझ गहरी हो चुकी थी। तभी पानी के उस तरफ़ अर्णाकुलम् के बूलेवार की बत्तियाँ जल उठीं। साथ ही दायीं तरफ़ भारतीय नौसेना के दो जहाज़ भी जगमगा उठे। उन्हें गणतन्त्र दिवस के उपलक्ष्य में बत्तियों से सजाया गया था। भास्कर के नंगे पैर में कोई चीज़ खुभ गयी थी। वह झुककर उसे निकालने लगा। जब वह सीधा हुआ, तो मैंने विदा लेने के लिए उसकी तरफ़ हाथ बढ़ा दिया। भास्कर के होठ कुछ कहने के लिए हिले, पर उसने चुपचाप मुझसे हाथ मिलाया और वापस चल दिया। बोट जेट्टी की तरफ़ बढ़ते हुए मेरी नज़र एक बार पीछे की तरफ़ गयी, तो देखा कि भास्कर कुछ क़दम जाकर रुक गया है। मुझे अपनी तरफ़ देखते पाकर वह मुस्कराया और अनिश्चित भाव से मेरी तरफ़ बढ़ आया। पास आकर उसने काग़ज़ का वह टुकड़ा मेरे हाथ में दे दिया जिस पर उसने पेंसिल से कुछ लिखा था। मैंने खोलकर देखा। काग़ज़ पर उसका पता दिया हुआ था : भास्कर कुरुप, मटनचरी पैलेस, कोचिन।
मैंने अपनी पॉकेट-बुक से काग़ज़ फाड़कर उसे अपना पता लिख दिया और फिर एक बार उससे हाथ मिलाकर बोट जेट्टी की तरफ़ बढ़ आया।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान